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अमोढ़ाखास या अमोढ़ा रियासत कत्यूरी सूर्यवंशी

 [22/10, 15:55] Akhilesh Bahadur Pal: कुछ कथायंे कहती हैं कि प्रत्येक राजपूत वंश अवध से सम्बद्ध थी। इसी प्रकार महुली महसों की भांति अमोढ़ा के कायस्थ को एक दूसरे सूर्यवंशी द्वारा अलग निकाल दिया गया था। इनके मुखिया कान्हदेव थे जो तिलक देव के वंशज थे उस क्षेत्र के कायस्थ जमींदार को भगाकर स्वयं को स्थापित किये थे। इसमें उन्हें आंशिक सफलता मिली थी। उनका पुत्र कंशनाराण पूर्वी आधा भूभाग कायस्थ राजा से प्राप्त कर लिया था। उनके उत्तराधिकारी ने बाकी बचे हुए भाग को जीतकर पूरा अमोढ़ा को अपने अधीन किया था। इस्लाम के आने पर कायस्थ राजकीय सहायक के रूप में आशावान हुए। मुगलकाल में वह पुनः स्थापित हुए। बस्ती मण्डल के शेष भाग में राजपूत वंश का ही बोलवाला थां अपवाद स्वरूप मगहरं मुस्लिम शासक के अधीन था। अमोढ़ा राज्य एक लम्बे समय तक अवध का अन्तर्भुक्त रहा है। गोरखपुर सरकार के अधीन यह बहुत बाद में आया था। इस कारण अंग्रेजों को यहां काफी मशक्कत उठानी पड़ी थी।

अमोढ़ाखास या अमोढ़ा रियासत:-यह जिला मुख्यालय से 41 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसका पुराना नाम अमोढ़ा है। यह पुराने दिनों में राजा जालिम सिंह का एक प्रांत (राज्य) था। इसके अलावा राजा जालिम सिंह के महल यहाँ हैं। महल की पुरानी दीवार अंग्रेजों द्वारा इस्तेमाल किये गए गोली के निशान के साथ अभी भी वहाँ है। इसके अलावा एक प्रसिद्ध मंदिर (रामरेखा मंदिर) यहाँ है। 1707 ई. औरंगजेब की मृत्यु के बाद सम्राट बहादुरशाह ने चीन कुलिच खान को अवध का सूवेदार और गोरखपुर का फौजदार नियुक्त किया, जिस पद को उसने 6 सप्ताह के बाद त्यागपत्र दे दिया था। एक भद्र पुरूष मुनीम खान के संकेत पर चीन कुलिच खान ने अपना त्यागपत्र वापस ले लिया था। लगभग 1710 ई. में सम्राट द्वारा पक्ष न लेने से वह पुनः उस पद से त्यागपत्र दे दिया। कार्यमुक्त होकर उसने अपने जीवन का शेष समय दिल्ली में बिताया। उसके त्यागपत्र से स्थानीय राजाओं को अपने-अपने क्षेत्र में धाक जमाने का अवसर प्राप्त हो गया। प्रत्येक राजा व्यवहारिक रूप से अपने क्षेत्र में स्वतंत्र हो गया। वे जमीन देने के लिए स्वतंत्र हो गये तथा सामान जमा करने से तथा बड़ी सेना के भरण पोषण से मुक्त होकर सेना को अपनी इच्छानुसार अपने पड़ोसियों से युद्ध में लगा दिये। उनकी स्वतंत्र स्थिति वाइन के “सेटेलमेट रिपोटर्” में वड़ी प्रमुखता से प्रकाशित कराई गई। जिसके अनुसार वे जमीन को विचैलिये की तरह या प्रतिनिधि की तरह नहीं लिए थे, बल्कि मुख्य प्राधिकारी की तरह उपभोग कर रहे थे। उक्त परिस्थिति का लाभ उठाकर अमोढ़ा के सूर्यवंशी ने अपना विस्तार किया था। जब अवध के नबाब सआदत अली खां अंग्रेजों को कर अदायगी न कर पाये तो नबाबी कुशासन का अन्त नवम्बर 1801 ई. के बाद हुआ था। उस समय इस मंडल का बहुत बड़ा भाग अंग्रेजों के अधीन आया तथा लगानमाफी का आदेश पारित हो गया। नबाब ने सत्ता अंग्रेजों को सौंपकर अपने दायित्वों से मुक्त हो गया था। अभी तक अमोढ़ा को छोड़ बस्ती का सारा क्षेत्र गोरखपुर सरकार के नाम से नबाब के अधीन था ,परन्तु 1801 ई. में अमोढ़ा सहित पूरा बस्ती मण्डल गोरखपुर जिले के अन्तर्गत समाहित हो गया था। स्वतंत्रता की लड़ाई में अपनी सह अपराजिता के कारण रानी अमोढ़ा को उनकी गद्दी से बेदखल कर दिया गया तथा उन्हें अपनी सम्पत्ति गवानी पड़ी थी ।

स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास:-अमोढ़ा कस्बे का स्वतंत्रता संग्राम से पुराना रिश्ता है। यहां के अंतिम राजा जंगबहादुर सिंह की मृत्यु 1855 ई. में हुई थी। राजा जालिम सिंह ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों से लोहा लेते हुए उन्हें नाकों चने चबाने पर मजबूर कर दिया तथा अंतिम सांस तक जंग जारी रखी। मजबूर हो अंग्रेज बैरंग वापस लौट गए थे, तभी से यह गांव स्टेट के रूप में प्रसिद्ध है। लेकिन तमाम जन प्रतिनिधि व प्रशासनिक अधिकारी राजा जालिम सिंह के कोट द्वार तक पहुंचे तथा उन्हें श्रद्धांजलि देकर ही अपने कर्तव्य की इति श्री कर ली। जिसका नतीजा रहा है कि भारी-भरकम आबादी वाला यह गांव बुनियादी सुविधाओं से भी महरूम रह गया। छावनी कस्बे से राम जानकी मार्ग पर महज तीन किमी की दूरी पर स्थित यह कस्बा आज भी अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहा है। यहां पर प्राथमिक शिक्षा को छोड़ दिया जाय तो न तो उच्च शिक्षा के साधन हैं और न ही चिकित्सा जैसी कोई मूलभूत सुविधा। जिसको देख कर लोग अपने मन को संतोष प्रदान कर सकें कि वे गांव या कस्बे में रहते हैं जिसका नाम इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है।

सूर्यराजवंश का इतिहासः-अमोढ़ा के राजपुरोहित परिवार के वंशज पंडित बंशीधर शास्त्री ने काफी खोजबीन कर अमोढ़ा के सूर्यवंशी राजाओ की 27 पीढ़ी का व्यौरा खोजा है जिसके मुताबिक इसकी 24 वी पीढ़ी में जालिम सिंह सबसे प्रतापी राजा थे। उन्होने 1732 -1786 तक राज किया । इसी वंश की छव्वीसवीं पीढ़ी में राजा जंगबहादुर सिंह ने 1852 तक राज किया । अंग्रेजों से कई बार मोरचा लिया। 71 साल की आयु में वह निसंतान दिवंगत हुए। उनका विवाह अंगोरी राज्य (राजाबाजार, ढ़कवा के करीब जौनपुर) के दुर्गवंशी राजा की कन्या तलाश कुवर के साथ हुआ। वहां राजकुमाँरियों को भी राजकुमारों की तरह शस्त्र शिक्षा दी जाती थी। इसी नाते रानी बचपन से ही युद्ध कला में प्रवीण थीं। वह आजादी की लड़ाई में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। परिणाम स्वरुप अन्हें अपनी उपाधि व राज्य से हाथ धोना पड़ा था। यह राज्य बस्ती की रानी को मिला था। जगतकुवरि की निःसन्तान मृत्यु हुई थी। इसी प्रकार इस राज की वरिष्ठ शाखा भी अवसान को प्राप्त हुई थी। सूर्यवंशी अमोढ़ा में अभी भी अपनी सम्पत्ति बनाये रखे हैं। अनका बहुत वड़ी सम्पत्तियां जीतीपुर मे है ,जो सदा फूल फल रहे हैं। अमोढ़ा राज के खंडहर आज भी अपनी जगह खड़े हैं और रानी अमोढ़ा की बलिदानी गाथा का बयान करते हैं। 

[22/10, 21:31] Akhilesh Bahadur Pal: पहले अमोढ़ा में भरों का राज था, जिसे पराजित कर सूर्यवंशी राजा कंसनारायण सिंह ने शासन किया । उनके पांच पुत्र थे जिसमें सबसे बड़े कुवर सिंह ने अपना किला पखेरवा में स्थापित किया । आज भी यह उनके किले के नाम से ही मशहूर है। अमोढ़ा के किले और राजमहल के नीचे से पखेरवा तक चार किलोमीटर सुरंग होने की बात भी कही जाती है। उनके कु वर कहे जाते हैं तथा अमोढ़ा के इर्द गिर्द के 42 गांव अपने आगे कुवर लगाते है । ये सभी काफी बागी गांव माने जाते रहे हैं। 1858 के बाद इन गांवों पर अंग्रेजों ने भीषण अत्याचार किया गया । विकास की मुख्यधारा से ये गांव आज भी सदियों पीछे हैं।

[22/10, 21:34] Akhilesh Bahadur Pal: अमोढ़ा रियासत एक जमाने में राजपूतों की काफी संपन्न रियासत हुआ करती थी। अमिताभ बच्चन के पिता जानेमाने लेखक स्व.हरिवंशराय बच्चन का बचपन भी अमोढ़ा राज की छांव में ही बीता। उनके पिता अमोढ़ा राजा के कर्मचारी थे। क्या भूलू क्या याद करू में हरिबंश राय बच्चन ने अपने बचपन के अमोढा को याद भी किया है। लेकिन यह उल्लेखनीय तथ्य है कि १८५७ के महान संग्राम में बस्ती जिले में केवल नगर तथा अमोढ़ा के राजाओं ने ही अंग्रेजों के खिलाफ अपना सर्वस्व बलिदान दिया ,जबकि बाकी रियासतें अंग्रेजों की मदद कर रही थीं। पर जिले के हर हिस्से में किसान तथा आम लोग अपने संगठन के बदौलत अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे। अमोढ़ा तो कालांतर में बागियों का मजबूत केन्द्र ही बन गया था,जहां बड़ी संख्या में तराई के बागी भी पहुंचे थे। अमोढ़ा की रानी ने इसी जनसमर्थन के बूते अंग्रेजो को लोहे के चने चबवा दिए।रानी अमोढा 1853 में राजगद्दी पर बैंठीं और उनका शासन 2 मार्च 1858 तक रहा। रानी अमोढ़ा भी झांसी की रानी की तरह निसंतान थीं। अंग्रेजों ने उनके शासन के दौरान कई तरह की दिक्कतें खड़ी करने की कोशिश की ,पर स्वाभिमानी रानी ने हर मोरचे का मुकाबला किया । रानी ने 1857 की क्रांति की खबर मिलने के बाद अपने भरोसेमंद लोगों के साथ बैठके की और फैसला किया कि अंग्रेजों को भारत से खदेडऩे में स्थानीय किसानो और लोगों की मदद से जी जान से जुट जाना चाहिए। उन्होने बस्ती-फैजाबाद के की सड़क और जल परिवहन ठप करा दिया था। संचार के सारे तार टूट जाने से अंग्रेज बुरी तरह बौखला गए। रानी अंग्रेजों के आंखों की किरकिरी पहले से ही बन गयीं थी। अंग्रेजों के खिलाफ जहर उगलनेवाली रानी को अपने अभियान में व्यापक जनसमर्थन मिला और इलाकाई किसानो ने रानी की शहादत का बदला ही नहीं लिया बल्कि एक -एक इंच जमीन पर अंग्रेजों से बहादुरी से लड़े। रानी की शहादत के बाद भी अंग्रेजों के खिलाफ जोरदार जंग जारी रही। सूर्यवंशी राजपूतों के गांव शाहजहांपुर के क्रांतिकरिओं ने अंग्रेजों की छावनी पर हमला करने तक का दुस्साहस उस समय किया । इस घटना के बाद 1858 में इस गांव का नाम ही गुंडा कर दिया गया। आज भी आजादी के 60 साल के बाद यह गांव गुंडा कुवर के नाम से जाना जाता है 

[22/10, 22:11] Akhilesh Bahadur Pal: अयोध्या. सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) द्वारा रामलला विराजमान के फैसले ने अयोध्या व आसपास के गांव के परिवारों की 500 साल पुरानी कसम को तोड़ दिया। अयोध्या से सटे पूरा बाजार ब्लॉक व आसपास के 105 गांव का सूर्यवंशी क्षत्रिय परिवार 500 साल बाद सिर पर पगड़ी और पैरों में चमड़े के जूते पहनेगा। इसका कारण है राम मंदिर को लेकर उनका संकल्प पूरा होना। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद इन परिवारों ने 500 साल बाद आम जिंदगी जीने का फैसला किया। दरअसल, सूर्यवंशी समाज के पूर्वजों ने मंदिर पर हमले के बाद इस बात की शपथ ली थी कि जब तक मंदिर फिर से नहीं बनेगा, तब तक वे सिर पर पगड़ी नहीं बांधेंगे, न ही छाते से सिर ढकेंगे और न ही चमड़े के जूते पहनेंगे। सूर्यवंशी क्षत्रिय अयोध्या के अलावा बस्ती के 105 गांव में रहते हैं। सभी परिवार खुद को भगवान राम का वंशज बताते हैं।

जूते चप्पल की जगह खड़ाऊ का इस्तेमाल

राम मंदिर पर फैसला आने के बाद सूर्यवंशी क्षत्रियों के करीब डेढ़ लाख परिवारों में पगड़ियां बांटी जा चुकी हैं। इतने वर्षों में सूर्यवंशी क्षत्रियों ने शादी में भी कभी पगड़ी नहीं बांधी। अयोध्या के भारती कथा मंदिर की महंत ओमश्री भारती का कहना है, ‘सूर्यवंशियों ने सिर न ढंकने का जो संकल्प लिया था, उसका पालन करते हुए शादी में अलग तरीके से मौरी सिर पर रखते रहे हैं, जिसमें सिर खुला रहता है। पूर्वजों ने जब जूते और चप्पल न पहनने का संकल्प लिया, तो उसकी जगह खड़ाऊ पहनना शुरू कर दिया। फिर बिना चमड़े वाले जूते-चप्पल आए तो उन्हें भी पहनने लगे, लेकिन चमड़े के जूते कभी नहीं पहने। उन्होंने बताया कि सूर्यवंशी क्षत्रियों के परिवार कोर्ट के फैसले से खुश हैं और उन्हें भव्य मंदिर बनने का इंतजार है।



मुगलों से युद्ध हारने के बाद लिया निर्णय

राम मंदिर को लेकर सूर्यवंशी क्षत्रियों के संकल्प की वजह है मुगलों से हारा हुआ युद्ध। इलाहाबाद हाईकोर्ट के पूर्व जज जस्टिस डीपी सिंह के मुताबिक, उनके पूर्वजों ने 16वीं सदी में मंदिर बचाने के लिए ठाकुर गजसिंह के नेतृत्व में मुगलों से युद्ध लड़ा था, जिसमें वे हार गए थे। हार के बाद ठाकुर गजसिंह ने पगड़ी व जूते न पहनने की प्रतिज्ञा ली थी। इसी प्रतिज्ञा का पालन उनकी पीढ़ियों ने भी किया।

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