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जनवरी, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

रंग नारायण पाल जूदेव वीरेश ‘रंगपाल’

कवियित्री मां से मिली प्रेरणा :- रंगपाल नाम से विख्यात महाकवि रंग नारायण पाल जूदेश वीरेश पाल का जन्म नगर पंचायत हरिहरपुर में फागुन कृष्ण 10 संवत 1921 विक्रमी को हुआ था। उनके पिता का नाम विश्वेश्वर वत्स पाल तथा माता का नाम श्रीमती सुशीला देवी था । उनके पिता जी राजा महसों के राज्य के वंशज थे। वे एक समृद्धशाली तालुक्केदार थे। उनके पिता जी साहित्यिक वातावरण में पले थे तथा विदुषी मा के सानिध्य का उन पर पुरा प्रभाव पड़ा था। उनकी मां संस्कृत व हिन्दी की उत्कृष्ट कवियित्री थीं। रंग पाल जी उनकी मृत्यु 62 वर्ष की अवस्था में भाद्रपद कृष्ण 13 संवत 1993 विक्रमी में हुआ था। माताजी से साहित्य का अटूट लगाव का पूरा प्रभाव रंगपाल पर पड़ा, जिसका परिणाम था कि स्कूली शिक्षा से एकदम दूर रहने वाले रंगपाल में संगीत की गहरी समझ थी। ‘बस्ती जनपद के छन्दकारों का साहित्यिक योगदान’ के भाग 1 में शोधकर्ता डा. मुनिलाल उपाध्याय ‘सरस’ ने पृ. 59 से 90 तक 32 पृष्ठों में विस्तृत वर्णन प्रस्तुत किया गया है। इसे उन्होंने द्वितीय चरण के प्रथम कवि के रुप में चयनित किया है। वह एक आश्रयदाता, वर्चस्वी संगीतकार तथा महान कवि के रुप म...

फिजाओं में घुलने लगे रंगपाल के फाग

माह फाल्गुन का हो तो रंगों और उमंगों के बीच कवि रंगपाल का नाम सामने आना स्वाभाविक है। जिले के हरिहरपुर निवासी रंगनारायण पाल जूदेव की रचनाओं और ढोलक की थाप के समन्वय पर हर कोई झूमने के लिए विवश हो जाता है। संत कबीरनगर : माह फाल्गुन का हो तो रंगों और उमंगों के बीच कवि रंगपाल का नाम सामने आना स्वाभाविक है। जिले के हरिहरपुर नगर निवासी रंगनारायण पाल जूदेव की रचनाओं और ढोलक की थाप के समन्वय पर हर कोई झूमने के लिए विवश हो जाता है। फाल्गुन कृष्ण पक्ष 10 संवत 1921 विक्रमी को उनका जन्म हुआ। उनके पिता विश्वेश्वर वत्स पाल महसों राज परिवार के वंशज थे। उनकी मां सुशीला देवी संस्कृत व हिदी की उत्कृष्ट कवियित्री थीं। इसका प्रभाव रंगपाल पर पड़ा और उन्होंने स्कूली शिक्षा से दूर रहने के बाद भी अपनी रचनाओं से दुनिया भर में उपलब्धि प्राप्त की। लोकगीतों, फागों व विविध साहित्यिक रचनाओं से वह आज भी अविस्मरणीय हैं।भाषा व श्रृंगार से ओतप्रोत होली में रंगपाल के फाग का रंग बरसने लगता है। उनकी अंगादर्श, रसिकानंद, सज्जनानंद, प्रेम लतिका, शांत रसार्णव, रंग उमंग और गीत सुधानिधि, रंग महोदधि, ऋतु रहस्य , नीति चंद्रिका,...

महुली स्टेट के कत्यूरी सूर्यवंश पाल राजपूतों का उद्गम

अयोध्या के राजा सुमित्र महापदम नंद से पराजित होने के बाद अयोध्या से सूर्य वंश का शासन समाप्त हो गया कश्यप के 221 में वंशज महाराज शालीवाहन देव अयोध्या से कत्यूर घाटी जो कि भगवान कार्तिकेय के नाम पर हैं वहां सेना लेकर गये एवं वहां के शासकों को पराजित कर कत्यूरी सूर्यवंश राज्य की स्थापना किया इन्हीं के आगे बसंत देव त्रिभुवनराज खरपर देव ललित शूर देव कटारमल देव असंती देव निम्बर देव सलोनादित्य भूदेव ईस्ट गण देव आदि प्रतापी राजा हुए ये भगवान शिव की पूजा करते थे इन्होंने समस्त उत्तराखंड पर शासन किया जिसका प्रमाण विभिन्न ताम्रपत्र अभिलेखों में मिलता है कत्यूरी सूर्यवंश शासन में द्वैध शासन प्रणाली थी उत्तराखंड के अंतिम कत्यूरी सम्राट ब्रह्मदेव थे महराज त्रिलोकपाल देव कस्तूरी राज्य पाली पाछहुँ के राजा थे अस्कोट क्षेत्र जहां लोग मानसरोवर यात्रा पर जाते थे रास्ते में डाकु लूट लेते थे एक बार कुछ सन्यासियों ने महराज त्रिलोकपाल देव जी से आग्रह किया कि 1 पुत्र उनकी रक्षा के लिए दें महराज त्रिलोकपाल देव ने अपने छोटे पुत्र महाराज अभय पाल देव को अस्कोट 127 9 ईस्वी में भेजा जहां महार...

अस्कोट राज्य और पाल सूर्य वंशी

ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह तथ्य सामने आता है कि अस्कोट राज्य की स्थापना सन 1238 ई. में हुई और यह 1623 ई. तक स्वतंत्र रूप में विद्यमान रहा। अपनी स्थिति एवं विशिष्टता के कारण यह कत्यूरी, चन्द, गोरखा व अंग्रेजी शासन के बाद स्वतंत्र भारत में जमींदारी उन्मूलन तक रहा।अस्कोट परगना महा व उप हिमालयी पट्टी के मिलन पर बना एक विस्तृत भू-खण्ड है, जिसमें छिपला एवं घानधुरा जैसे सघन वनों से आवृत्त पर्वत मालायें, गोरी, काली, धौली नदियों की गहरी घाटियों के क्षेत्र और आकर्षक सेरे मानव बसाव के लिये उपयुक्त रहे। अस्कोट काली जल-ग्रहण क्षेत्र में पड़ता है। इसमें छिपला से उतरने वाली अनेक छोटी नदियाँ जैसे मदकनी, बरमगाड़, रौंतीसगाड़, चरमगाड़, चामीगाड़, गुर्जीगाड़ के ढालों में भी काश्त के लिये सीढ़ीदार उपजाऊ खेत और इन खेतों से लगे छोटे-छोटे बनैले गाँव आकर्षण का कारण बनते हैं। प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से अस्कोट एक सम्पन्न परगना माना जा सकता है।अभिलेखों में बंगाल, काबुल, कटोर, कश्मीर, देव प्रयाग, टिहरी गढ़वाल एवं बैजनाथ के पाल मुख्य हैं। विभिन्न स्थानों से पालों के अभिलेख उपलब्ध होने से पालों के साम्राज्य का सन्...

कत्यूरी राजवंश की महारानी जियारानी रहीं थी रानीबाग में

mकर संक्रांति से पहले दिन विभिन्न इलाकों के कत्यूरी वंशज अपनी कुल देवी और आराध्य देवी की पूजा के लिए रानीबाग आते हैं। आज मकर संक्रांति पर्व पर रानीखेत, द्वाराहाट, भिकियासैंण, लमगड़ा, बासोट (भिकियासैंण), धूमाकोट, रामनगर, चौखुटिया, पौड़ी आदि इलाकों से कत्यूरी वंशज बसों में भरकर रानीबाग पहुंचे। उन्होेंने गार्गी नदी में स्नान करने के बाद जियारानी की गुफा में पूजा की और रात्रि में जागर लगाते है । कुल देवी से कष्ट निवारण की मनौती मांगते है कत्यूरी राजवंश की महारानी जियारानी रहीं थी रानीबाग में हल्द्वानी। कत्यूरी राजवंश चंद्र राजवंश से पहले का था। कुमाऊं में सूर्य वंशी कत्यूरियों का आगमन सातवीं सदी में अयोध्या से हुआ। इतिहासकार इन्हें अयोध्या के सूर्यवंशी राजवंश शालीवान का संबंधी मानते हैं। इनका पहला राजा वासुदेव था। सबसे पहले वह बैजनाथ आया। इनका शासन उत्तराखंड से लेकर नेपाल तक फैला था। द्वाराहाट, जागेश्वर, बैजनाथ आदि स्थानों के मंदिर कत्यूरी राजाओं ने ही बनाए हैं। 47वें कत्यूरी राजा प्रीतम देव की महारानी ही जियारानी थी। प्रीतम देव को पिथौराशाही नाम से भी जाना जाता है। जिनके नाम पर पिथौरागढ...