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फिजाओं में घुलने लगे रंगपाल के फाग

माह फाल्गुन का हो तो रंगों और उमंगों के बीच कवि रंगपाल का नाम सामने आना स्वाभाविक है। जिले के हरिहरपुर निवासी रंगनारायण पाल जूदेव की रचनाओं और ढोलक की थाप के समन्वय पर हर कोई झूमने के लिए विवश हो जाता है। संत कबीरनगर : माह फाल्गुन का हो तो रंगों और उमंगों के बीच कवि रंगपाल का नाम सामने आना स्वाभाविक है। जिले के हरिहरपुर नगर निवासी रंगनारायण पाल जूदेव की रचनाओं और ढोलक की थाप के समन्वय पर हर कोई झूमने के लिए विवश हो जाता है। फाल्गुन कृष्ण पक्ष 10 संवत 1921 विक्रमी को उनका जन्म हुआ। उनके पिता विश्वेश्वर वत्स पाल महसों राज परिवार के वंशज थे। उनकी मां सुशीला देवी संस्कृत व हिदी की उत्कृष्ट कवियित्री थीं। इसका प्रभाव रंगपाल पर पड़ा और उन्होंने स्कूली शिक्षा से दूर रहने के बाद भी अपनी रचनाओं से दुनिया भर में उपलब्धि प्राप्त की। लोकगीतों, फागों व विविध साहित्यिक रचनाओं से वह आज भी अविस्मरणीय हैं।भाषा व श्रृंगार से ओतप्रोत होली में रंगपाल के फाग का रंग बरसने लगता है। उनकी अंगादर्श, रसिकानंद, सज्जनानंद, प्रेम लतिका, शांत रसार्णव, रंग उमंग और गीत सुधानिधि, रंग महोदधि, ऋतु रहस्य , नीति चंद्रिका, मित्तू विरह वारीश, खगनामा, फूलनामा, छत्रपति शिवाजी, गो दुदर्शा, दोहावली तथा दर्पण आदि रचनाएं प्रकाशित हुई हैं। उनकी रचनाओं में मधुरता के भाव, देसी अवधी ब्रजभाषा, भोजपूरी भाषा मिठास का भाव समाहित है। वसंत ऋतु से ही ऋतुपति गयो आय हाय गुंजन लागे भौंरा-गांव-गांव सुनाई पड़ने लगते हैं। होली निकट आते ही इनके फागों की मिठास फिजा में घुलने लगी है।हमारी पहचान संस्कृति है। फाग हमारी सभ्यता व संस्कृति से जुड़ा हुआ है। फाग को भूलकर हम अपनी माटी की पहचान को विलुप्त कर रहे हैं। होली के पर्व पर राग-रागिनियों का महत्व है। कवि के फाग की विशेषता लोगों को सहज ही जोड़ती है। डा. विजयकृष्ण ओझा, प्रवक्ता एचआरपीजी कालेज खलीलाबाद sabhar : dainik jagaran

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