हाल ही में अल्मोड़ा पुरातत्व विभाग के अन्वेषण सहायक डाॅ. चन्द्र सिंह चैहान ने बैजनाथ के महन्त की कुटिया से राजा लखनपाल का एक विशाल शिलालेख का पता लगाया है जिससे पता चलता है कि महाराजाधिराज लखनपालदेव ने कात्र्तिकेयपुर में बैजनाथ का मन्दिर बनवाया था। अभी तक लेखपाल के तीन लेख ज्ञात थे-
(1) गणानाथ की लक्ष्मी- नारायण की मूर्ति के पाद लेख से पता चलता है कि उसका निर्माण राजा लखनपाल ने 1105 ई. में करवाया था।
(2) बैजनाथ संग्रहालय अथवा गोदाम में बन्द कुमाउनी भाषा के उन्नीस पंक्ति के शिलालेख से पता चलता है कि राजा लखनपाल ने बैजनाथ मन्दिर की पूजा-व्यवस्था के लिए चनौदा गाँव दान किया था। उसमें ‘बैजनाथ हुनि दीन्ही’ का प्रयोग होने से यह स्पष्ट है कि लखनपाल के राज्य में संस्कृत भाषा के साथ-साथ कुमाउनी भाषा का प्रयोग भी होने लगा था।
(3) तीसरा शिलालेख बदायूँ से मिला है जो कत्यूरी साम्राज्य में ‘वाँधवगढ़’ कहलाता था। मध्यकालीन तुर्क इतिहासकारों के अनुसार बदायूँ कटेहर (आधुनिक रुहेलखंड) राजधानी थी। उसके लिए दिल्ली सल्तनत और कत्यूरी राज्य में निरन्तर संघर्ष चलता रहता था। लखनपाल का बदायूँ लेख भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की पत्रिका- ‘एपिग्राफिया इंडिका’ के प्रथम खंड में प्रकाशित हो चुका था लेकिन इतिहासकारों ने इस लेख में उपलब्ध ऐतिहासिक तथ्यों की ओर तक कोई ध्यान नहीं दिया है।
उत्तराखंड के इतिहास की सबसे बड़ी समस्या यह है कि अंग्रेज एटकिंसन ने अपने गजेटियर में मध्यकालीन उत्तराख्ंड में केवल दो राज्य (1) कुमाऊँ और (2) गढ़वाल घोषित कर दिये जबकि तीसरा राज्य ‘सिवालिक राज्य’ उन दोनों से कहीं अधिक विस्तृत और शक्तिशाली था। उसे संस्कृत भाषा में ‘सपादलक्ष’ कहते थे। वह दक्षिण में सहारनपुर की शाकंभरी देवी के मन्दिर से लेकर उत्तर में कैलश मानसरोवर तक फैला हुआ था। जियारानी, तीलू रौतेली, मालूशाही, गोरिल, हरू और सैम की लोकगाथाएं (जागर) सिवालिक राज्य सेे सम्बन्धित हैं। इस राज्य की प्रारंभिक राजधानी सरयू और गोमती नदी के संगम पर बागेश्वर में ‘कार्तिकेयपुर’ के नाम से प्रसिद्ध थी। 1380 ई. में रानीबाग के युद्ध के बाद कत्यूरा राजा पिथौरा (अन्य नाम- पृथ्वीशाही, पृथ्वीपाल और प्रीतमदेव) ने अपने नाम से कैलाश और पशुपतिनाथ के मार्गों के चैराहे पर ‘पिथौरागढ़’ नगर बसाया। सिवालिक राज्य के वंशज अस्कोट के पाल रजवार उत्तराखंड में अंग्रेजी राज्य की स्थापना (1815 ई.) के समय तक सत्तारूढ़ थे। अंग्रेजों ने रजबार खड़कपाल को तिब्बत में पालीटिकल एजेण्ट और पिथौरागढ़ में एस.डी.एम. बनाकर पुराने राजवंश को मान्यता दी।
एटकिंसन ने कार्तिकेयपुर को चमोली जिले के जोशीमठ में स्थित बताकर पर्वतीय इतिहास लेखन में एक औपनिवेशिक शैली को जन्म दिया जिसका श्री बदरीदत्त पाण्डे, राहुल सांकृत्यायन, डाॅ. एम.पी. जोशी आदि ने अंधानुकरण किया। भले ही कार्तिकेयपुर और तंगणपुर (चमोली जनपद) के बारे में कुछ भी न जानने के बावजूद आज उत्तराखंड में इतिहास लेखन की चार शैलियाँ प्रचलित हैं- 1. औपनिवेशिक शैली- एटकिंसन से एम.पी. जोशी तक। 2. पत्रकार शैली- बदरीदत्त पाण्डे से शक्तिप्रसाद शकलानी तक। 3. पुरातत्व शैली- डाॅ. के.पी. नौटियाल से बी.डी.एस. नेगी तक। 4. सांस्कृतिक शैली- डाॅ. शिव प्रसाद डबराल से ताराचन्द्र त्रिपाठी तक।
उपरोक्त चारों शैलियों के भ्रम से इतिहास के विद्यार्थियों और शोधछात्रों को मुक्ति दिलाने के लिए एक ही उपाय सम्भव है-बागेश्वर जनपद का नाम बदल कर ‘कार्तिकेयपुर जनपद’ कर दिया जाय। शिव-पार्वती के पुत्र कार्तिकेय का जन्म स्थल होने से दक्षिणभारत में ‘मुरगन’ तथा ‘सुब्रामण्यम’ नाम से कार्तिकेय को पूजने वाले बागेश्वर की यात्रा करेंगे और विश्वभर में कार्तिकेियपुर इतिहासकारों के लिए चर्चित स्थल बन जायेगा।
राजा लखनपाल ने अपने नाम से चार लखनपुर बसाये-1. अस्कोट के पास, 2. अल्मोड़ा के पास, 3. चैखुटिया के पास और 4. रामनगर में ढिकुली के पास। अस्कोट की यह परम्परा है कि एक बार दक्षिण भारत में श्रीशैल से नीमनाथ जोगी और अभयराज पाण्डे कैलाश-मानसरोवर की यात्रा के लिए अस्कोट पहुँचे। उस समय नेपाल के वन रौतों (किरात) का तीर्थयात्रा पथ पर आतंक था। वे तीर्थयात्रियों के रात्री विश्राम स्थल- छिपुलाकोट, धारचूला का तपोवन, डीडीहाट का हाटथर्प आदि में बर्तन, कपड़े और खाद्य सामग्री चुरा लेते थे। यात्रा से लौटने पर वे दोनों कार्तिकेयपुर गये और राजा लखनपाल से उसका सबसे छोटा बेटा अस्कोट में राजा बनाने के लिए मांग लाये। अभयराज पाण्डे ने उस बालक को शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा दी। अतः अभयराज पाण्डे द्वारा पाला हुआ होने से वह अभयपाल कहलाया। बड़ा होने पर ‘लखनपुर कोट’ में उसका अभिषेक किया गया। उसे रामेश्वर के पास ‘बमरिया कोट’ से लेकर तिब्बत के पास ‘ताकलाकोट’ तक ‘उत्तरापथ’ के नाम से प्रसिद्ध मार्ग की रक्षा के लिए दोनों ओर ‘अस्सी कोट’ दिए गये, तब अस्कोट (अस्सी धन कोट) नाम प्रचलित हुआ। अभयपाल के चार पुत्र थे, जो क्रमशः लखनपुर, ऊकू, अस्कोट और देवथल में राजा बने। ऊकू के राजाओं में द्वैराज्य प्रणाली थी। पिथौरागढ़ के समीप घुंसेरा के ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि ऊकू (नेपाल) में नागपाल और विक्रमपाल का सम्मिलित शासन था। बारह ‘राजा’ उपाधि वाले राजकुमारों की केन्द्रीय सभा राजकाज की देखरेख करती थी। उसी कारण ‘रजबार’ (बारह राजा) शब्द प्रचलित हुआ।
कैलाश के यात्रियों के लिए अस्कोट के ‘देबल दरबार’ में सिंगाली गाँव के ओझा ब्राह्मण भोजन बनाते थे। रजबार रायपाल के समय 1588 ई. में गोपी ओझा रसोइये थे। दरबार में दो घंटियाँ बजायी जाती थी। पहली घंटी बजते ही तीर्थयात्री खाना खाते थे। दूसरी घंटी बजने पर रजबार, उसका परिवार और सेवक भोजन करते थे।
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