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ललितशूरदेव का 21वें राज्य वर्ष का पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्र (13 वीं से 24 वीं पंक्ति)-

 


उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी से चम्पावत तक विस्तृत भू-भाग पर स्थित प्राचीन मंदिरों से अनेक अभिलेख प्राप्त हुए हैं, जिनमें शिलालेख, स्तम्भलेख, त्रिशूललेख और ताम्रपत्र महत्वपूर्ण हैं। सैकड़ों की संख्या में प्राप्त ताम्र धातु के आयताकार और वृत्ताकार फलक पर उत्कीर्ण लेख ही उत्तराखण्ड के प्राचीन इतिहास के महत्वपूर्ण स्रोत हैं। विभिन्न राजवंशों द्वारा समय-समय पर निर्गत ताम्रपत्रों से ही उत्तराखण्ड के प्राचीन इतिहास को क्रमबद्धता से संकलित किया गया। ये ताम्र फलक मध्य हिमालय के मंदिरों और गृहों से प्राप्त हुए। उत्तरकाशी का प्राचीन नाम बाड़ाहाट था, जहाँ के महादेव मंदिर प्रांगण में स्थापित त्रिशूल पर लेख उत्कीर्ण है। इसी प्रकार एक अन्य त्रिशूल लेख चमोली जनपद के रुद्रनाथ मंदिर (गोपेश्वर) से प्राप्त हुआ है। पंचकेदारों में से एक रुद्रनाथ के अतिरिक्त चमोली जनपद में अनेक प्राचीन तीर्थ स्थल हैं, जिनमें पाण्डुकेश्वर नामक स्थल अलकनंदा के दायें तट पर स्थित है, जहाँ से कार्तिकेयपुर एवं सुभिक्षुपुर उद्घोष वाले ताम्रपत्र प्राप्त हुए हैं। इसलिए इन ताम्रपत्रों को पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्र भी कहते हैं।

    पाण्डुकेश्वर से प्राप्त चार ताम्रपत्रों में से कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव के दो ताम्रपत्र उत्तराखण्ड के प्राचीन इतिहास के लिए महत्वपूर्ण हैं। इनमें से एक ताम्रपत्र 21 वें राज्य वर्ष का है, जिसे स्थानीय लोग भीम की पाटी कहते थे। इस तामपत्र का आकार काष्ठ से निर्मत स्लेट जैसा ही है, जिसके मुट्ठे पर नंदी का चित्र अंकित है, जो कार्तिकेयपुर राज्य चिह्न छाप को प्रदर्शित करता है। इस राजा का दूसरा ताम्रपत्र 22 वें राज्य वर्ष में निर्गत किया गया था।

    पाण्डुकेश्वर के प्राचीन मंदिर से प्राप्त ताम्रपत्रों ललितशूरदेव के अतिरिक्त पद्मटदेव का कार्तिकेयपुर तथा सुभिक्षराजदेव का सुभिक्षुपुर उद्घोष वाला ताम्रपत्र पृथक-पृथक राजवंश की ओर संकेत करता है। इन तीन शासकों के पाण्डुकेश्वर से प्राप्त ताम्रपत्रों को इतिहासकार कत्यूरी वंश से संबद्ध करते हैं। इनमें ’ललितशूरदेव’ को कत्यूरी राजवंश का प्रतापी शासक माना जाता है, जिसके ताम्रपत्र कार्तिकेयपुर विषय से निर्गत किये गये थे। उक्त दो ताम्रपत्रों के अनुसार इस महान कत्यूरी शासक की वंशावली ’निम्बर’ से आरंभ हुई। ताम्रपत्रां के अतिरिक्त बागेश्वर के बागनाथ मंदिर से प्राप्त शिलालेख भी ललितशूरदेव की वंशावली की पुष्टि करता है, जिसे उसके पुत्र भूदेवदेव ने लिखवाया था। 

इस संक्षिप्त लेख में ललितशूरदेव के 21 वें राज्य वर्ष में निर्गत पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्र के 13 वीं से 24 वीं पंक्ति तक का अध्ययन किया जा रहा है।

पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्र- 13 वीं से 24 वीं पंक्ति –

13-बलव्यापृतकभूतप्रेषणिकदण्डिकदण्डपाशिकगमागमिशार्गिंकाभित्वरमाणकराजस्थानीयविषयपतिभोगपतिनर-

-पत्यश्वपति दण्डरक्षप्रतिशूरि-

14-कस्थानाधिकृतवर्त्मपालकौट्टपालघट्टपालक्षेत्रपालप्रान्तपालकिशोरवरवागोमहिष्यधिकृतभट्टमहत्तमाभीर-

-वणिक्श्रेष्ठिपुरोगास्तष्टादशप्रकृ-

15-त्यधिष्ठानीयान्खषकिरातद्रविड़कलिंगशौरहूणोण्ड्ड्रमेदान्ध्रचाण्डालपर्यन्तान्सर्व्वसम्बसान्समस्तजनपदान्-

-भटाचटसेवकादीनन्यांश्चकीर्त्तितानकीर्त्तितनस्म-

16- त्पादपद्मोपजीविनःप्रतिवासिनश्चब्राह्मणोत्तरान्यथार्हेमत्तयतिबोधयतिसमाज्ञापयत्यस्तुतेस्मांद्विदितमुपरिनि-

-र्दिष्टविषयेगोरुन्नसायांप्रतिबद्धखषियाक-

17- परिभुज्यमानपल्लिकातथापणिभूतिकायांप्रतिबद्धगुग्गुलपरिभुज्यमानपल्ल्किद्वयंएतेमयामातापित्रोरात्मनश्च-

 पुण्ययशोभिवृद्धयेपवनविघट्टिता-

18- श्वत्थपत्रवच्चलतरंगजीवलोकमवलोक्यजलवुद्वुदाकारमसारंवायुर्दृष्ट्वागजकलभकर्णाग्रचपलातांचालक्ष्यत्वा-

परलोकनिःश्रेयसार्थसंसारार्णवोत्तणार्थंच-

19-पुण्येहनिउत्तरायणसंक्रांतौगन्धपुष्पधूपदीपोपलेपननैवेद्यवलिचरुनृत्यगेयवाद्यसत्वादिप्रवर्त्तनायखण्डस्फुटित-

संस्करणायअभिनवकर्मकरणा-

20- यचभृत्यपदमूलभरणायचगोरुन्नसायांमहोवीश्रीसामदेव्यास्वयंकारायितभगवतेश्रीनारायणभट्टारकायशासन-

-दानेनप्रतिपादिताःप्रकृतिपरिहारयुक्तः-

21- प्रचाटाभटाप्रवेशःअकिंचित्प्रग्राह्याःअनाच्छेद्यआचन्द्रार्क्कक्षितिस्थितिसमकालिकःविषयादुद्धृतपिण्डास्थ-

-सीमागोचरपर्यन्तस्य वृक्षारामोहृदप्रस्रवणोपे-

22- तदेवब्राह्मणभुक्तभुज्यमानविर्जताःयतस्सुखंपारंपर्येणपरिभुंजतश्चास्योपरिनिर्दिष्टैरन्यतरैर्व्वाधरणविधारणपरि-

पन्थिजनादिकोपद्रवोमनागपिनकर्त्त-

23- व्यो नान्यथा …….. महान्द्रोहःस्यादितिप्रवर्द्धमानविजयराज्यसम्बत्सरएकविशंतिमेसम्वत्21माघवदि3 …

.-महादानाक्षयपटलाधिकृतश्रीपीजकः। लि –

24-खितमिंदंमहासन्धिविग्रहाक्षपटलाधिकृतश्रीमदायटाववनाटंकोत्कीर्णाश्रीगंगभद्रेण।

विवेचना-

कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव के इस ताम्रपत्र का आरंभ स्वस्ति से किया गया है। कुमाऊँ के चंद राजाओं ने भी अपने अधिकांश ताम्रपत्रों का आरंभ स्वस्ति से किया था, जिसका अर्थ ‘कल्याण हो’ होता है। 

तेरहवीं पंक्ति इस प्रकार से है- बल व्यापृतक भूत प्रेषणिक दण्डिक दण्डपाशिक गमागमिशार्गिंक अभित्वर माणक राजस्थानीय विषयपति भोगपति नरपति अश्वपति दण्ड रक्षप्रतिशूरि-क (यहाँ पर चौदहवीं पंक्ति के प्रथम वर्ण ‘क’ को संयुक्त किया गया है।) के आधार पंडित बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं-‘‘हाथी, ऊँट, घोड़े और सेना के द्वारा प्राप्त प्रभूत धन तथा दण्ड के द्वारा प्राप्त हुए धन एवं पशुओं के आयात और निर्यात के द्वारा प्राप्त हुए धन-समूह को राज्यकार्य में लगे हुए अनेक जिलों के मालिक, अनेक सेनाध्यक्ष, छोटे नृपति, अश्वपति, प्रान्ताध्यक्ष, शत्रुसेना भयंकर, अपने बड़े-बड़े सेनापति-’’

चौदहवीं पंक्ति के प्रथम वर्ण ‘क’ को तेरहवीं पंक्ति के अंत में संयुक्त करने के पश्चात यह पंक्ति इस प्रकार से है- स्थानाधिकृत वर्त्मपाल कौट्टपाल घट्टपाल क्षेत्रपाल प्रान्तपाल किशोरवरवा गो महिष्यधिकृत भट्ट महत्तम अभीर वणिक् श्रेष्ठि पुरोगास्त् (इस पंक्ति के अंतिम शब्दों ‘अष्टादश प्रकृ’ को पन्द्रहवीं पंक्ति में संयुक्त किया जायेगा) के आधार पर बद्रीदत्त पंडित लिखते हैं- ‘‘मार्ग-संशोधक तथा प्रबंधक, किलेदार, घट्टपाल, क्षेत्रपाल, प्रान्तपाल, उनके पुत्र और पौत्र, गोपाल, महिषीपाल, इनके निरीक्षक बड़े-बड़े महाकवि, अहीर, वैश्य, बड़े-बड़े सेठ, इनमें रखकर-’’

    चौदहवीं पंक्ति के अंतिम शब्दों ‘अष्टादश प्रकृ’ को पन्द्रहवीं पंक्ति में संयुक्त करने से यह पंक्ति इस प्रकार से है- अष्टादश प्रकृति अधिष्ठानीयान् खष किरात द्रविड़ कलिंग शौर हूण उण्ड्ड्र मेद आन्ध्र चाण्डाल पर्यन्तान् सर्व्व सम्बसान् समस्त जनपदान् भटा चट सेवका दीनन्यांश्च कीर्त्तितान कीर्त्तितनस्म के आधार पर बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘18 प्रकार राजनीति के जानने वाला खस, किरात, द्रविड़, कलिंग, सूरसेन, हूण, आन्ध्र , मेद आदि चांडाल पर्यन्त समस्त परिजनों को, समस्त काम करने वाले को, समस्त जनपदों के मनुष्यों को, समस्त सेनापतियों को, इसी प्रकार अन्य समस्त सेवकों को-’’

    सोलहवीं पंक्ति इस प्रकार से है- त्पाद पद्म उपजीविनः प्रति वासिनश्च ब्राह्मण उत्तरान् यथार्हे मत्त यतिबोध यति सम आज्ञापयत्यस्तु तेस्मां द्विदितम् उपरि निर्दिष्ट विषये गोरुन्नसायां प्रतिबद्ध खषियाक के आधार पर पंडित बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘प्रसन्न करके, उनके द्वारा कही हुई कीर्ति का बार-बार स्मरण करके अपने आश्रय में आने वाले और उनके समस्त इष्ट-मित्रों को, ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य समस्त जनों को यथायोग्य यह आदेश देता है, तथा बतलाता है, और अनुशासन करता है कि तुम सब लोग ऊपर बतलाए हुए देशों में उन्नत-उन्नत-गोष्ठों (गोष्ठों) को, तथा धान्य-राशि के उठाने के स्थानों को-’’

    सत्रहवीं पंक्ति इस प्रकार से है- परिभुज्यमान पल्लिका तथा पणिभूतिकायां प्रतिबद्ध गुग्गुल परिभुज्यमान पल्ल्कि द्वयं एते मयामाता पित्रोरात्मनश्च पुण्य यशोभिवृद्धये पवनविघट्टिता के आधार पर पंडित बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं-‘‘छोटे-छोटे ग्रामों को, ग्रामों को, पल्लियों (खरक) को, बाजारों को तथा देवोद्देश्य से दिये हुए अनेक सुगंधित द्रव्यों से सुगंधित दोनों ओर से मार्ग वाले उच्च-उच्च यश-मण्डपों को, इन सबकों मैंने अपने माता-पिता और अपने आत्मा की पूर्ण वृद्धि के लिये गोरुन्नसारी तथा दूसरा ग्राम, जो पाली में है और जो खसिया तथा गुग्गुल के अधिकार में है, वे ग्राम दान में दिये गये-’’

अठारहवीं पंक्ति इस प्रकार से है-श्वत्थ पत्र वच्चल तरंग जीव लोक मवलोक्य जलवुद् वुदाकारम सारं वायुर्दृष्ट्वा गजकलभ कर्णाग्र चपलातां चालक्ष्यत्वा परलोक निःश्रेय सार्थ संसार अर्णव उत्तणार्थं च के आधार पर पंडित बद्रीदत्त पंडित लिखते हैं- ‘‘ अश्वत्य (पीपल) पत्र के समान चंचल अपने जीवन को देखकर जल-बुद्धुद के समान असार आयु को देखकर, अपनी लक्ष्मी की हाथी के बालक के कर्ण-चालन के समान चंचलता देख करके परलोक में मोक्ष-सुख की प्राप्ति के लिये तथा संसार-सागर के उतरने के लिये-’’

उन्नीसवीं पंक्ति इस प्रकार से है- पुण्येहनि उत्तरायण संक्रांतौ गन्ध पुष्प धूप दीप उपलेपन नैवेद्य वलि चरु नृत्य गेय वाद्य सत्वादि प्रवर्त्तनाय खण्ड स्फुटित संस्करणाय अभिनव कर्मकरणा के आधार पंडित बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘पुण्य दिन में, उत्तरायण संक्रान्ति में, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, उपलेपन, नैवेद्य, बलि, चरु, नृत्य, गान, वाद््य आदि के लिए, फूटे हुए मकानों की मरम्मत के लिए, नवीन मंदिरों के बनाने के लिए’’

बीसवीं पंक्ति इस प्रकार से है- यच भृत्य पद मूल भरणा यच गोरुन्नसायां महादेवी श्रीसामदेव्या स्वयं कारायित भगवते श्रीनारायण भट्टारकाय शासन दानेन प्रति पादिताः प्रकृति परिहार युक्तः के आधार पर पंडित बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- (मंदिरों के) सेवकों की तनख्वाह के लिये, गौ की नासिका के समान उन्नत, पवित्र भूमि में महादेवी श्रीसामदेवी ने स्वयं बनाये हुए भगवान् के मंदिर की पूजा के लिये गोरुन्नसारी नामक गांव श्रीनारायण भट्टारक को अपनी आज्ञा से दिया-’’

इक्कीसवीं पंक्ति इस प्रकार से है- प्रचाटाभटा प्रवेशः अकिंचित्प्रग्राह्याः अनाच्छेद्य आचन्द्रार्क्क क्षितिस्थिति समकालिकः विषयादुद् धृत पिण्डास्थ सीमागोचर पर्यन्तस्य वृक्षारामो हृद प्रस्रवणोपे के आधार पर पंडिम बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘ समस्त सेवक-युक्त आगम-निर्गम-द्वार-घटित, नहीं लेने योग्य, नहीं तोड़ने योग्य, सूर्य-चन्द्रमा की आयु तक रहने वाले अपने प्रान्त के अनेक प्रान्तों को, उनकी सीमाओं के साथ-साथ लगे हुए वृक्षों को, बगीचों को, गहरे-गहरे तालाबां को, झरनों को-’’

     बाईसवीं पंक्ति इस प्रकार से है- तदेव ब्राह्मण भुक्त भुज्यमान विर्जताः यतस्सुखं पारं पर्येण परिभुंज तश्चास्य उपरि निर्दिष्टैरन्यत रैर्व्वाधरण विधारण परिपन्थि जनादि कोप द्रवोम नाग पिन कर्त्त के आधार पर पंडित बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘ मंदिर-स्थित ब्राह्मणों के निमित्त दी हुई अनेक सामग्रियों को सुख-पूर्वक जीवन-निर्वाह करने के लिए, उनकी वंश-परम्परागत सन्तति के में अन्य भी अनेक उपकरण के साथ दिये हुए निर्विवाद अनन्त काल तक व्यवहार में लाने के लिये जो मैंने लिखित-उल्लिखित स्थान बतलाये हैं, उनमें कोई भी किसी प्रकार का झगड़ा न करे-’’

तेईसवीं पंक्ति इस प्रकार से है- व्यो नान्यथा …….. महान्द्रोहः स्यादिति प्रवर्द्धमान विजय राज्य सम्बत्सर एकविशंतिमे सम्वत् 21 माघ वदि 3 ….-महादान अक्षयपटल अधिकृत श्री पीजकः। (इस पंक्ति के अंतिम शब्द ‘लि’ को चौबीसवीं पंक्ति से संयुक्त किया जायेगा।) के आधार पर पंडित बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘उनका मेरी आज्ञा के विरुद्व….. (यदि कोई व्यवहार करेगा) तो मेरे प्रति महान द्रोही होगा। इस आज्ञा को मैं प्रवर्धमान विजयराज्य संवत्सर 21 में माघवती तृतीया को महादान-पत्र के साथ अक्षय राज्य के ऊपर बैठने वाले उत्तरवंशाधिकारियों को यह हमारा आदेश है।’’

तेईसवीं पंक्ति के अंतिम शब्द ‘लि’ को चौबीसवीं पंक्ति से संयुक्त करने पर यह पंक्ति इस प्रकार से है। लिखितमिंदं महासन्धि विग्रह अक्षपटलाधिकृत श्री मदायटाववना टंकोत्कीर्णा श्री गंगभद्रेण। (इस पंक्ति के अंतिम वाक्यांश-‘बहुभिर्व्व सुधा भुक्ता राजभिः सगरादिभिः। यस्य यस्य यदा भूमिस्त’ को अन्यत्र लेख में श्लोकों से संयुक्त किया जायेगा।) के आधार पर पंडित ब्रदीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘यह लिखा गया है उच्चतर संधि तथा उच्चतरर विग्रह के द्वारा प्राप्त हुए राज्य नायक श्रीमान आयट अवटंकवाले श्री गंगभद्र ने’’ साभार 

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