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कत्यूरियों की डोटी-अस्कोट वंशावली

 


     उत्तराखण्ड के इतिहासकार कत्यूरी वंश को मध्य हिमालय का महान राजवंश घोषित करते हैं। कत्यूरियों की एक शाखा डोटी-अस्कोट की वंशावली कई पुस्तकों में प्रकाशित हो चुकी है। कार्तिकेयपुर के इस प्राचीन राजवंश के राज्य क्षेत्र को सम्पूर्ण उत्तराखण्ड से संबद्ध किया जाता है। इसका कारण है- उत्तरकाशी के कण्डारा, चमोली के पाण्डुकेश्वर और चंपावत के बालेश्वर मंदिर से कार्तिकेयपुर उद्घोष युक्त ताम्रपत्र तथा बागेश्वर के बागनाथ मंदिर से प्राप्त शिलालेख। इन अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर कत्यूरी वंश को उत्तराखण्ड का सर्वाधिक शक्तिशाली राजवंश माना जाता है। विद्वानों के अनुसार बागेश्वर का निकटवर्ती बैद्यनाथ ही प्राचीन कार्तिकेयपुर था। इसलिए बागनाथ शिलालेख में उल्लेखित शासकों को कत्यूरी शासक कहा गया। किंतु यह शिलालेख एक राजवंश का नहीं, वस्तुतः तीन राजवंशों से संबंधित था, जिसमें क्रमशः मसन्तदेव, खर्परदेव और निम्बर की वंशावली उत्कीर्ण है। ‘ददौ… नामक राजा ने मसन्तदेव और त्रिभुवनराजदेव ने खर्परदेव की वंशावली को इस शिलालेख में उत्कीर्ण करवाया था। जबकि निम्बर के परपौत्र भूदेवदेव ने कार्तिकेयपुर उद्घोष युक्त लेखांश को इस शिलालेख में उत्कीर्ण करवाया था। राजा भूदेवदेव के पिता ललितशूरदेव ने ही कण्डारा और पाण्डुकेश्वर मंदिर से प्राप्त कुल तीन ताम्रपत्रों को निर्गत किया था।


1- कार्तिकेयपुर राजवंश-

     ललितशूरदेव के ताम्रपत्र में भी कार्तिकेयपुर का उल्लेख किया गया है। या कहें तो भूदेवदेव का बागेश्वर शिलालेख पिता ललितशूरदेव के ताम्रपत्रों की ही प्रतिलिपि है। इसी प्रकार कार्तिकेयपुर नरेश पद्मटदेव का ताम्रपत्र भी ललितशूरदेव के ताम्रपत्रों की प्रतिलिपि है, जो सलोणादित्य के वंशज थे। अतः मसन्तनदेव, खर्परदेव, निम्बर तथा सलोणादित्य के वंश को इतिहासकारों ने एक ही राजवंश ‘कत्यूरी’ से संबद्ध किया, जो उचित प्रतीत नहीं होता है। इन चार राजवंशों में से निम्बर और सलोणादित्य के वंशजों ने कार्तिकेयपुर से अपने राज्य का संचालित किया था। कार्तिकेयपुर को कत्यूर घाटी के बैजनाथ के रूप में पहचान देने के कारण ही विद्वानों ने ताम्रपत्रीय कार्तिकेयपुर नरेशों को कत्यूरी कहा। बागेश्वर और बैजनाथ एक दूसरे से लगभग 21 किलोमीटर दूरी पर हैं। अतः इस कारण बागेश्वर शिलालेख में उत्कीर्ण मसन्तनदेव और खर्परदेव के वंश को भी कत्यूरी कहा गया।


    स्थान विशेष ‘कत्यूर’ से संचालित राज्य के आधार पर उक्त पृथक-पृथक राजवंशों को विद्वानों ने कत्यूरी वंश की संज्ञा दी। इसी प्रकार तेरहवीं से सोलहवीं शताब्दी के कालखण्ड में गंगोलीहाट के मणकोट नामक दुर्ग से संचालित सरयू-पूर्वी रामगंगा अंतस्थ राज्य ‘गंगोली’ के दो पृथक-पृथक राजवंशों- सूर्यवंशी रामचन्द्रदेव (उत्तर कत्यूरी) और चंद्रवंशी कर्मचंद के वंश को ‘मणकोटी’ कहा गया। अतः स्थान विशेष के नाम से राजवंश और ‘जाति’ का निर्धारण करना उत्तराखण्ड के इतिहास लेखन की एक विशेषता रही है।


2-रैका-मल्ल-

     उत्तराखण्ड के ताम्रपत्रीय और शिलालेखीय कत्यूरी राजाओं के अतिरिक्त’ काली-पूर्वी रामगंगा अंतस्थ राज्य ‘अस्कोट’ तथा काली नदी के पूर्व में स्थित नेपाल के ’डोटी’ राज्य के प्राचीन राजवंश को भी इतिहासकार कत्यूरी करते हैं। अस्कोट और डोटी राज्य पर शासन करने वाले शासक क्रमशः ‘पाल’ और ‘मल्ल‘ कहलाते थे। मल्लों को रैका-मल्ल भी कहा जाता था और इनकी एक शाखा ‘बमशाही’ कहलाती थी, जिसके अधिकार क्षेत्र में ‘सोर’ राज्य (वर्तमान पिथौरागढ़ नगर) था। कालान्तर में बम शासकों ने चंपावत के चंद शासकों की अधीनता स्वीकार कर ली थी। 


    मध्य काल में रैका-मल्ल शासकों का शासन नेपाल के डोटी से पिथौरागढ़ के सीराकोट (वर्तमान डीडीहाट) तक विस्तृत था। इस कालखण्ड में अस्कोट के पाल शासक, मल्लों के अधीनस्थ थे। सन् 1581 ई. में चंद राजा रुद्रचंददेव सीराकोट पर अधिकार करने में सफल हुए। पराजित राजा हरिमल्ल डोटी को भाग गये। सन् 1581 ई. के ग्रीष्म ऋतु से कुमाऊँ के सीराकोट से मल्ल वंश का शासन सदैव के लिए समाप्त हो गया। सीराकोट विजय के पश्चात रुद्रचंद ने सरयू-काली अंतस्थ क्षेत्र- गंगोली, सीरा, भोट और सोर का शासन अस्कोट के पाल वंश को दे दिया। इस वंश के राजकुमारों ने सरयू के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र पर ‘रजवार’ उपाधि के साथ चंदों के अधीनस्थ शासक के रूप में राज्य किया। कत्यूर घाटी से दूर और कुमाऊँ के पूर्वोत्तर भू-भाग पर शासन करने वाले मल्ल और पाल वंश की वंशावली कई पुस्तकों में प्रकाशित हो चुकी है, जो इस प्रकार से है-


3-कत्यूरियों की डोटी-अस्कोट वंशावली-

एडविन थॉमस एटकिन्सन के अनुसार-


क्र.सं.    डोटी-मल्ल वंशावली                   अस्कोट-पाल वंशावली


1 –        शालिवाहनदेव                               शालिवाहनदेव


2 –      शक्तिवाहनदेव                              संजय, कुमार


3 –      हरि   वर्मादेव                                 हरित्रयदेव


4 –        ब्रह्मदेव                                              ब्रह्मदेव, सक


5 –      वज्रदेव                                              बज्रदेव, वृणजव


6 –       विक्रमादित्यदेव                              विक्रमजीतदेव


7 –       धर्मपालदेव                                       धर्मपाल, सारंगधर


8 –      नीलपालदेवै                                       निलयपाल,   


9 –      मुजराजदेव                                       भोजराज, विनयपालदेव


10 –      भोजदेव                                       भुजंरदेव


11 –      समरसिंहदेव                               समरसी


12 –      अशालदेव                                       असला, असौक


13 –     सारंगदेव                                       संरगदेव


14 –      नकुलदेवनज,                                    कमजय, सौनकुल, ग्रणपति


15 –      जयसिंहदेव                                       जयसिंहदेव, शंकस्वर, शनेश्वर


16 –      अनिजालदेव                                       क्रासिद्धद्य


17 –       विद्यराजदेव                                       विधिराज


18 –       पृथ्वेश्वरदेव                                       पृथ्वेश्वर


19 –      चूनपालदेव                                       बालकदेव                 ‘‘पाली-पछाऊँ की वंशावली’’


20 –      आसन्तिदेव                                      आसन्तिदेव                     आसन्तिदेव                                          


21 –       बासन्तिदेव                                      बासन्तिदेव                      बासन्तिदेव 


22 –      कटारमल्लदेव                               कटारमल्लदेव


23 –        सिंहमल्लदेव                               सोतदेव, सिंध


24 –      फणिमल्लदेव                                     किण


25 –       निफिमल्लदेव                               रणकीणा


26 –       निलयरायदेव                               नीलराय


27 –       वज्रबाहुदेव                                      वज्रबाहुदेव, 


28 –       गौरांगदेव                                      गौरांग                                गौरांगदेव


29 –       सीयामल्लदेव                              सदिला                                श्यामलदेव


30 –      इलराजदेव                                        इतिनराज                        फेणबराई


31 –       नीलराजदेव                                       तिलंगराज                        केशबराई, 


32 –       फाटकशिलराजदेव                        उदकशील                         अजबराई, गजबराई


33 –       पृथ्वीराजदेव                                प्रीतम                          प्रीतमदेव


34 –      धामदेव                                        धाम                                 धामदेव


35 –       ब्रह्मदेव                                         ब्रह्मदेव                          वीरमदेव


36 –       त्रिलोकपालदेव                               त्रिलोकपाल                  सुरदेव


37 –       निरंजनदेव                                         अभयपाल,   शाके 1201 भावदेव


38 –       नागमल्लदेव                                        निर्भयपाल, शाके 1275


39 –   ………………………                               भारतीपाल, शाके 1316


40 –       रिपुमल्ल, शाके 1332                         भैरवपाल


41 –      धीरमल्ल                                         भूपाल, शाके 1343 के पश्चात  28 पीढ़ियों की वंशावली ज्ञात नहीं।


42 –     आनन्दमल्ल, शाके 1352,1360            


43 –      संसारमल्ल, शाके 1364 —–


44 –      कल्याणमल्ल, शाके 1365 —–


45 –      राईमल्ल, शाके 1461 —–


46 –       भूपतिमल्ल, शाके 1480    शाके 1488 —–


47 –      हरिमल्ल  (रुद्रचंद द्वारा पराजित)           रायपाल  (‘‘सन् 1588 में गोपी ओझा द्वारा मारे गये।’’)


4- शालिवाहन वंश (कत्यूरी वंश) का विभाजन

डोटी-मल्ल शाखा के 36 वें क्रमांक के वंशज त्रिलोकपालदेव के उपरांत शालिवाहन वंश (कत्यूरी वंश) स्पष्टतः दो शाखाओं में विभक्त हो चुका था। कत्यूरी राजा त्रिलोकपाल तक पाल-वंशावली में मल्ल-वंशावली के सापेक्ष 12 शासकों के नाम अतिरिक्त हैं, जो इस सूची को संदेहास्पद बनाते हैं। अल्मोड़ा के पाली-पछाऊँ के कत्यूरी वंशजों की सूची आसन्तिदेव से आरम्भ होती है। इसी आधार पर इतिहासकार आसन्तिदेव को प्रथम कत्यूरी शासक बतलाते हैं और जिसे बागेश्वर शिलालेख में उल्लेखित प्रथम राजा मसन्तनदेव से संबद्ध करते हैं। पाली-पछाऊँ सूची में आसन्तिदेव के पश्चात क्रमशः बासन्तिदेव, गौरांगदेव और श्यामलदेव का नाम है। जबकि डोटी-मल्ल वंशावली में आसन्तिदेव 20 वें, बासन्तिदेव 21 वें, गौरांगदेव 28 वें और श्यामलदेव 29 वें क्रमांक पर सूचीबद्ध किये गये हैं। डोटी-मल्ल, अस्कोट-पाल और पाली-पछाऊँ की उक्त वंशावली सूची में भिन्नता से स्पष्ट होता है कि इनमें डोटी की मल्ल-वंशावली सर्वाधिक प्रमाणिक प्रतीत होती है।


डोटी-मल्ल और अस्कोट-पाल वंश के मूल पुरुष शालिवाहन थे। डोटी-मल्ल वंशावली में शालिवाहन से त्रिलोकपालदेव तक कुल 36 और अस्कोट-पाल वंशावली में कुल 48 शासकों का उल्लेख किया गया है। पंडित बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘यह कहा जाता है कि राजा धामदेव व वीरदेव से इस प्रतापी वंश का अवसान होना आरम्भ हुआ।’’ कत्यूरियों की डोटी, अस्कोट और पाली-पछाऊँ वंशावली सूची से धामदेव और ब्रह्मदेव (वीरदेव) का उल्लेखित प्राप्त होता हैं। डोटी और अस्कोट वंशावली में ब्रह्मदेव के पश्चात क्रमशः ‘त्रिलोकपालदेव’ और ‘त्रिलोकपाल’ का नाम अंकित है। जबकि पाली-पछाऊँ की वंशावली में त्रिलोकपाल के स्थान पर ‘सुरदेव’ नाम अंकित है। उक्त वंशावली सूची से स्पष्ट होता है कि ब्रह्मदेव (वीरदेव/वीरमदेव) के उत्तराधिकारी त्रिलोकपालदेव के उपरांत कत्यूरी वंश शाखाओं में विभक्त हो चुका था। यह विभाजन त्रिलोकपालदेव के दो पुत्रों निरंजनदेव और अभयपाल के मध्य हुआ, जो क्रमशः डोडी-मल्ल तथा अस्कोट-पाल वंश की नींव रखने में सफल हुए। 


      राजकुमार निरंजनदेव ने कत्यूरी ’देव’ तथा राजकुमार अभयपाल ने पिता के नामांत के दो अक्षरों ‘पाल’ को उपनाम के रूप में धारण किया। पंडित बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘सन् 1279 ई में अभयपालदेव कत्यूर छोड़कर अस्कोट को गये।’’ उक्त वंशावली सूची से स्पष्ट होता है कि तेरहवीं शताब्दी में कत्यूरी राज्य मुख्यतः अस्कोट, डोटी और पाली-पछाऊँ आदि स्थानीय राज्यों में विभाजित हो चुका था। गंगोलीहाट के जाह्नवीदेवी नौला शिलापट्ट लेख से राजा रामचन्द्रदेव का नाम प्राप्त होता है। इस शिलालेख में 1264, 1267 और 1275 ई. की तिथि उत्कीर्ण है। अतः तेरहवीं शताब्दी में कत्यूरियों की एक शाखा गंगोली में भी विद्यमान था। गंगोली के कत्यूरी शासकों की श्रद्धा बैजनाथ (कार्तिकेयपुर) के प्रति भी थी। ‘‘बैजनाथ के मंदिर में सन् 1352 का एक पत्थर निकला था, जिसमें लिखा है कि गंगोली के राजा (हमीरदेव, लिंगराजदेव, धरालदेव) ने मंदिर का कलश बनवाया।’’ 


    डॉ. रामसिंह लिखते हैं- ‘‘द्वाराहाट के मृत्युंजय मंदिर में विजयदेव-लिहदेव का शाके 1211 (1289 ई.) तथा कालीखोली की गरुड़ारूढ़ विष्णु की भग्न-प्रतिमा पर शाके 1220 (1298 ई.) अंकित लघुलेख में अनन्तपालदेव का उल्लेख द्वाराहाट क्षेत्र में विद्यमान राजसत्ता के अस्तित्व का प्रमाण है।’’ द्वाराहाट के उक्त राजाओं के अतिरिक्त ‘‘कत्यूर के शासक लखनपाल के पुत्र सहणपालदेव शाके 1229 (सन् 1307 ई.), बागेश्वर के राजा जैचंददेव शाके 1252 (1330)’’ आदि शासकों के भी साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार तेरहवीं शताब्दी के अंत में द्वाराहाट, कत्यूर और बागेश्वर क्षेत्र में कत्यूरियों के पृथक-पृथक परिवारों का शासन था। इसलिए सन् 1279 में अभयपाल के कत्यूर छोड़कर अस्कोट जाने की घटना को पंडित बद्रीदत्त पाण्डे ‘‘राष्ट्र-विप्लव’’ की संज्ञा देते हैं।


5- राजी-

    कत्यूर में राष्ट्र-विप्लव के पश्चात अभयपाल ने संभवतः अस्कोट राजगद्दी हेतु प्राचीन ’राजी’ जाति को प्रतिस्थापित किया। विद्वान इस राजी जाति को मध्य हिमालय की प्राचीन ‘किरात’ जाति से संबद्ध करते हैं। अस्कोट-राजियों की दंत कथानुसार बड़ा भाई वन और छोटा भाई अस्कोट का शासक होता था। इसलिए इन्हें कुमाउनी में वनरौत (वनरावत) भी कहा जाता है। पंडित बद्रीदत्त पाण्डे अस्कोट के वनरौत समुदाय के संबंध में लिखते हैं- ’’जब कोई उनका प्रधान (सिरगिरोह) राजा के पास आता है, तो वह राजा की गद्दी के निकट बैठता है। राजा को छोटा भाई तथा रानी को बहू के नाते से पुकारेगा। राजा को उसे बड़ा भाई यानी ’दाज्यू’ कहना होता है।’’ वनरौतों को इतना सम्मान देने का कारण संभवतः अभयपाल और उनके वंशजों के साथ वनरावतों का शान्तिपूर्ण सत्ता हस्तान्तरण रहा हो।


अभयपाल सन् 1279 ई में अस्कोट पाल वंश की नींव रखने में सफल हुए। कालान्तर में इस वंश के रायपाल ने चंद राजा रुद्रचंद की अधीनता स्वीकार कर ली थी। इस वंश का अस्तित्व आज भी अस्कोट में है। चंदों के पतनोपरांत ब्रिटिश काल में अंग्रेजों ने इस वंश को अस्कोट क्षेत्र की जागीर प्रदान की थी। दूसरी ओर त्रिलोकपालदेव के पुत्र निरंजनदेव ने डोटी वंश की नींव रखी। इसी डोटी-मल्ल वंश के राजा हरिमल्ल को भी चंद राजा रुद्रचंददेव ने पराजित किया था। सीराकोट के मल्ल-रैका राजा हरिमल्ल को पराजित करने के पश्चात ही रुद्रचंद को सम्पूर्ण कुमाऊँ का राजा होने का गौरव प्राप्त हुआ। हरिमल्ल के डोटी चले जाने से कत्यूरियों की एक शाखा रैका-मल्ल का शासन सदैव के लिए कुमाऊँ से समाप्त हो गया।

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