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रघुवंश का इतिहास:-

 *जयश्री राम *  

रघुवंश का इतिहास:- "भाग-2"

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           कौशलजनपद (साकेत/अयोध्या) के अंतिम रघुवंशी राजा सुमित्र थे। लगभग 411 ईपू. में मगध के शासक महापद्यनंद ने कौशल पर आक्रमण कर अयोध्या के अंतिम रघुवंशी राजा सुमित्र को हराकर उन्हें अयोध्या/साकेत से निष्कासित कर दिया था। महापद्मनंद ने कौशलजनपद को मगध में मिलाकर, मगध का एक प्रांत बनाकर इसका शासन भरों को सौप दिया था। जो श्रावस्ती से शासन करने लगे थे। इस प्रकार कौशल पर नंदवंश का शासन हो गया था।

" उत्तर कौशल के रघुवंशी " :- 

             सरयु नदी से लेकर नेपाल की तराई तक का क्षेत्र उत्तर कौशल कहलाता था। उत्तर कौशल के रघुवंशी प्रभु श्रीराम के छोटे पुत्र लव के वंशज थे। नंदवंश के समय उत्तर कौशल में रघुवंशी बहराइच, श्रावस्ती क्षेत्र में तथा बस्ती से गोरखपुर के बीच के क्षेत्र में रहते थे। नंदवंश के शासनकाल में उत्तर कौशल (उत्तरीअवध) के वहराइच, श्रावस्ती क्षेत्र के रघुवंशी पलायन करके पंजाब से होते हुए जम्मू कश्मीर व पाकिस्तान में जाकर वस गये थे। पाकिस्तान में लौहारगढ़ व सिंध में इन्होने रियासतें स्थापित की थी। इन्ही रघुवंशियों की एक शाखा ने लोहरगढ़ पर राज किया था। ये लोहरगढ़ के राणा (लोहराणा) कहलाते थे । लौहारगढ़ वर्तमान में लाहौर कहलाता है। दुसरी शाखा के रघुवंशियों ने सिंध (वर्तमान पाकिस्तान) में शासन किया था। ये भी राणा कहलाते थे। इन्ही राणाओं के वंशजों ने गुहिल , गहलौत, सिसोदिया आदि राजपूत वंशों की स्थापना की थी । राणा सांगा, महाराणा प्रताप इसी वंश के प्रतापी शासक है ।

         जबकि बस्ती से गोरखपुर के बीच के  रघुवंशियों ने पलायन नही किया था। वे 12 वी सदी तक इसी क्षेत्र (दनुवा रियासत) में रहे थे । दनुवा रियासत, सरयु नदी के किनारे  थी । जिस पर लव के वंशधर करिराव के वंशज रघुवंशी शासकों ने राज किया था। दनुवा रियासत के शासकों के नाम - धनीराव, मणिराव, प्रचण्डराव, महाराव, रणराव, हंसराव, कुंतलदेव, चंदनदेव, धरमदेव, विरमदेव व नयन देव थे । नयन देव की शादी काशी के राजा बनार की पुत्री इंदुमती से हुई जिन्हें दहेज में वाराणसी का कटेहर परगना तथा जौनपुर के डोभी, व्यालसी परगना मिले थे। नयन देव के बाद  शाल्ले कुंवर , नगई राव, देव कुंवर राजा हुये । 1207 - 10  के लगभग देवकुँवर अपने छोटे भाई को रियासत देकर जौनपुर के डोभी परगना आ गये । यहाँ से डोभी परगना, व्यालसी परगना व वाराणसी परगना पर शासन किये । 

देव कुवंर के बाद उनके पुत्र भुज राय को   डोभी परगना तथा दूसरे पुत्र विरहज राय को वाराणसी का कटेहर परगना मिला था । देवकुँवर के साथ बहुत से रघुवंशी जौनपुर के  डोभी परगना में आकर वस गये थे । जो वर्तमान में उप्र के वाराणसी व जौनपुर के जिलो मे निवासरत है । डोभी परगना मे से कुछ रघुवंशी विहार तथा बंगाल में वसे है । कटेहर से ही गाजी पुर तथा चंदौली में भी रघुवंशी वर्तमान में है । देवकुँवर के जौनपुर आने के बाद जो रघुवंशी दनुवा रियासत मे रहे थे । वो दनुवा रियासत (गोरखपुर, देवरिया) से बिहार के सीवान, सारण जिलो में आ गये थे । जो वर्तमान में बिहार के सीवान, सारण मे निवासरत है ।


 * दक्षिण कौशल के रघुवंशी * :-  

                      सरयु नदी से लेकर गंगा नदी तक का क्षेत्र दक्षिण कौशल कहलाता था। दक्षिण कौशल के रघुवंशी प्रभु श्रीराम के बड़े पुत्र कुश के वंशज थे। कौशल राज्य के अंतिम रघुवंशी राजा सुमित्र के शासनकाल मे दक्षिण कौशल में रघुवंशियों के ठिकानें अयोध्या के आस पास (वर्तमान उप्र के फैजाबाद/अयोध्या, बाराबंकी, लखनउ, सुल्तानपुर, अमेठी, रायवरेली जिलों में) थे । नंदवंश के शासनकाल में दक्षिण कौशल के रघुवंशी अयोध्या साकेत से दूर गोमती नदी को पार कर दक्षिण की ओर चले गये थे । तथा गोमती नदी व गंगा नदी के बीच (वर्तमान उप्र के सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, अमेठी, रायवरेली जिलों) में अपनें ठिकानें बनाये थे । रघुवंशी मौर्यवंश, शुंग वंश, कण्यवंश से सम्राट विक्रमादित्य के शासन काल तक यही रहे थे । इसके बाद गंगा नदी को पार कर यमुना नदी व गंगा नदी के बीच फतेहपुर, प्रयागराज (इलाहाबाद) आदि जिलों में रघुवंशियों ने अपने ठिकानें बनाये थे । 9 वी सदी तक रघुवंशी ठाकुरो ने यमुना नदी को पार कर उप्र के बांदा, चित्रकूट जिलों में अपनें ठिकानें बनाये थे। यहाँ पर (वर्तमान बुंदेलखण्ड उ.प्र. में) रघुवंशियों की गढ़मढ़फा , राजापुर , बरोद, कोचर आदि प्रमुख रियासतें व कई जागीरें थी। रघुवंशी इस समय चंदेलो के प्रतिनिधि के रूप में गढमढफा व राजापुर में राज कर रहे थे । महोबा के राजा परमाल (परमदिरदेव) की एक पुत्री रघुवंशी राजा नवरंगराय को व्याही थी। नवरंगराय के तीन पुत्र थे। सवसे छोटे पुत्र का नाम अजयदेव था । सन 1182 में प्रथ्वीराज चौहान ने महोबा पर आक्रमण किया था ।आल्हा-उदल परमदिरदेव के दो प्रमुख सेनानायक थे। वीरवर आल्हा ने रघुवंशी राजा नवरंगराय के तीसरे पुत्र अजयदेव को कालिंजर किले में राजा परमाल की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी थी। रघुवंशी राजा नवरंगराय के दो पुत्रो ने पृथ्वीराज चौहान के साथ युद्ध किया था । जो युद्ध करते हुये वीरगति को प्राप्त हुये थे । इस युद्ध मे आल्हा ऊदल भी प्रथ्वीराज चौहान से युद्ध करते हुये वीरगति को प्राप्त हुये थे। इसके बाद पॉृथ्वीराज चौहान ने कलिंजर किले को घेर लिया था। कलिंजर किलें में चंदेल राजा परमालदेव के सेनापति रघुवंशी अजयदेव ने मोर्चा सम्हाला था। कई दिनों के प्रयास के बाद भी पॉृथ्वीराज चौहान  कलिंजर किलें पर अधिकीर नही कर पाये थे। महोबा को लूटकर लौट गये थे।

               सन 1202 ईस्वी में कुतुबुद्दीन ऐबक ने कालिंजर पर आक्रमण किया था। (कालिंजर किला चंदेल वंश के राजा परमार्दी देव का एक सुदृढ़ दुर्ग व सैनिक केंद्र था ) कई दिनों तक घेरा बंदी के बाद संधि वार्ता आरंभ हुई किंतु इसके पूर्व ही राजा परमार्दी देव की मृत्यु हो गई थी। परमार्दी देव के प्रधानमंत्री रघुवंशी ठाकुर अजय देव ने संधि वार्ता ठुकरा दी व पुन: विरोध प्रारंभ किया । कई दिन की लड़ाई के बाद भी कुतुबुद्दीन ऐबक कालिंजर दुर्ग को नही जीत पाया । दुर्ग में एक पहाड़ी सोते से पानी की व्यवस्था होती थी। तुर्को को इसका पता चलते ही सोते का पानी दूसरी ओर मोड़ दिया फलस्वरुप जलापूर्ति बंद हो गई । फलस्वरूप अजय देव के पास संधि के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं रहा। चंदेलो ने कालिंजर का दुर्ग खाली कर दिया । रघुवंशी ठाकुर अजय देव ने राजा परमाल के परिवार को अजय गढ़ के निकटवर्ती दुर्ग में भेज दिया था। चंदेल राजा परमाल का वीर सेना नायक अजय देव वीरता पूर्वक कुतुबुद्दीन ऐबक से युद्ध करता हुआ वीर गति को प्राप्त हुआ था। इस युद्ध के बाद चंदेलों ने कलिंजर का किला छोड़ दिया था । महोबा से चंदेल राजाओं ने शासन किया था । गढ़मरफा पर रघुवंशी ऱाजाओ ने शासन किया था। बुन्देलखण्ड में गढ़ मरफा, राजापुर, पाथरकछार, बरौंधा, बरोद, कोचर , राजवासनी (रसिन) आदि रघुवंशियों की रियासतें थी । सन 1234 में  गुजरात से आये सोलंकी राजपूत व्याघ्रदेव ने खाली पड़े कलिंजर किलें पर अधिकार कर लिया था। बाद में व्याघ्रदेव ने गढ़मढ़फा के रघुवंशी राजाओ को हरा कर इस क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था। गढ़मरफा के रघुवंशी राजा मंडीहदेव के युद्ध में वीरगति होने के वाद रघुवंश की एक शाखा राजा जैतकर्ण के पुत्रो व 55 अन्य रघुवंशी जगीरदारों के साथ अपनी जागीरों को छोड़कर वुंदेलखंड के चंदेरी पारकर गुना,शाढौरा क्षैत्र में अपना ठिकाना वनाये थे और बुंदेलखंड मप्र में रघुवंशी समाज के रूप में स्थापित हुये। दूसरी शाखा वहीं रह गई जो वरौंधा रियासत, पाथरकछार और रसिन में ठिकाने वनाये। तथा उस शाखा के रघुवंशी चित्रकूट, सतना, मैहर, कटनी आदि में पाये जाते है ।

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                  * । जय श्रीराम । *

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