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उत्तराखण्ड और कुणिन्द राजवंश

 


उत्तराखण्ड के प्राचीन इतिहास से संबंधित एकमात्र ऐतिहासिक सामग्री कुणिन्द वंश की प्राप्त होती है, जिसे मुख्यतः दो भागों में विभाजित कर सकते हैं- पुरातात्विक एवं साहित्यिक सामग्री। पुरातात्विक सामग्री में कुणिन्द मुद्राएं और साहित्यिक सामग्री में धार्मिक ग्रंथ महत्वपूर्ण हैं। प्राचीन काल से तृतीय शताब्दी ईस्वी पूर्व तक कुणिन्द इतिहास का एक मात्र स्रोत्र धार्मिक ग्रंथ हैं, जिनमें महाभारत, रामायण और मार्कण्डेय पुराण प्रमुख हैं। कुणिन्दों का उल्लेख ‘‘रामायण, महाभारत तथा मार्कण्डेय आदि पुराणों में त्रिगर्तों, कुलूतों, औदुम्बरों आदि जातियों के साथ मिलता है।’’ कुणिन्दों का सबसे प्राचीन उल्लेख महाभारत से प्राप्त होता है, जिसके अनुसार कुणिन्द राजा ‘सुबाहु’ ने महाभारत के युद्ध में प्रतिभाग किया था। जबकि ‘‘रामायण के पुलिन्द को कुछ विद्वान कुलिन्द पढ़ते हैं (डी.आर. मनकद)।’’ 


    साहित्यिक स्रोतों के अतिरिक्त मुद्राएं कुणिन्द राज्य के सबसे प्रामाणिक स्रोत्र हैं, जिनके माध्यम से विद्वानों ने कुलिन्द राज्य के भूगोल को रेखांकित करने का प्रयास किया है। मध्य हिमालय में 200 ई. पू. से 300 ई. तक कुणिन्द इतिहास का एकमात्र स्रोत्र उत्तर भारत के कई स्थानों से प्राप्त कुणिन्द मुद्राएं ही हैं। इन मुद्राओं के आधार पर विद्वानों ने मौर्य तथा मौर्योत्तर कालीन मध्य हिमालय के प्रथम ऐतिहासिक राजवंश ‘कुणिन्द’ की विवेचना का प्रयास किया।


कुणिन्द राज्य के भूगोल को रेखाकिंत करने हेतु विद्वानों ने कुणिन्द मुद्राओं की प्राप्ति स्थलों को अति महत्व दिया है। प्राचीन कुणिन्द शासकों के रजत और ताम्र मुद्राएं उत्तर भारत के वर्तमान पांच राज्यों उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, हिमाचल, हरियाणा और पंजाब से प्राप्त हुए हैं। ये मुद्राएं जिस भौगोलिक क्षेत्र से प्राप्त हुए हैं, उसका सबसे उत्तरी भाग कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश), दक्षिणी भाग करनाल (हरियाणा), पश्चिमी भाग लुधियाना (पंजाब) तथा पूर्वी भाग अल्मोड़ा (उत्तराखण्ड) है।


पंजाब के दो स्थलों ‘रूपड’़ (रूपनगर) और ‘सुनेत’ (लुधियाना) तथा हरियाणा के ‘सुघगांव’ या ‘स्रुघ्न’ (अम्बाला), नारायणगढ़ एवं बड़िया (करनाल) से कुणिन्द मुद्राएं प्राप्त हुई हैं। हिमाचल प्रदेश के ‘चकर’ (मण्डी), ‘ज्वालामुखी’ (कांगड़ा) तथा ‘तप्पा-मेवा’ (हमीरपुर) से भी कुणिन्द मुद्राएं प्राप्त हुई हैं। अम्बाला के ‘स्रुघ्न’ को पंजाब, हरियाणा और हिमाचल तक विस्तृत कुणिन्द राज्य की राजधानी माना जाता है। उत्तर प्रदेश के ‘बेहत’ (सहारनपुर) से भी कुणिन्द मुदाएं प्राप्त हुई हैं, जिसे भी कुणिन्द राज्य की राजधानी माना जाता है। 


कुणिन्द मुद्राएं उत्तराखण्ड के देवढुंगा (उत्तरकाशी), थत्यूड़ एवं अठूड़ (टिहरी गढ़वाल), सुमाड़ी, भौड़गांव एवं पाण्डुवाल (पौड़ी गढ़वाल) तथा कुमाऊँ क्षेत्र के अल्मोड़ा और कत्यूर घाटी, बागेश्वर से भी प्राप्त हुई हैं। कत्यूर घाटी से प्राप्त 54 कुणिन्द मुद्राएं इस क्षेत्र में कुणिन्द राज्य के प्रभाव स्पष्ट करते हैं। बागेश्वर जनपद के गोमती नदी घाटी को कत्यूर कहते हैं, जहाँ कौसानी-गरुड़ के निकट का प्राचीन बैजनाथ मंदिर समूह, मध्य हिमालय के समृद्धिशाली इतिहास को रेखांकित करता है। पश्चिम से पूर्वी की ओर विस्तृत इस घाटी के गरुड़ कस्बे में गोमती के बायें तटवर्ती ‘बैजनाथ’ को विद्यान कार्तिकेयपुर मान्य करते है, जो प्राचीन काल में कत्यूरी राज्य की राजधानी थी। इस प्राचीन राज्य के महान शासकों द्वारा निर्गत ताम्रपत्र उत्तराखण्ड के चमोली एवं चम्पावत के मंदिरों क्रमशः पाण्डुकेश्वर और बालेश्वर से प्राप्त हुए हैं। इन ताम्रपत्रों में उद्घोष शब्द ‘कार्तिकेयपुर’ उत्कीर्ण है। संभवतः आरम्भिक कत्यूरी शासक, कुणिन्दों के परवर्ती थे। 


     मिस्र के भूगोलविद् ‘‘टाल्मी, संवत् 144-222 (87-165 ए.डी) ने व्यास, सतलुज, यमुना और गंगाजी के स्रोत्र प्रदेश की ढालों पर कुलिन्दजन के विस्तार का उल्लेख किया है।’’ भूगोलविद् टाल्मी का विवरण और कुणिन्द मुद्राओं के प्राप्ति स्थल एक दूसरे से अभिन्नता रखते हैं। मुद्रा चलन के आधार पर विद्वान इस विशेष भौगोलिक क्षेत्र (व्यास से काली नदी मध्य क्षेत्र) को ही ’कुणिन्द जनपद’ कहते हैं, जो पंजाब से उत्तराखण्ड तक विस्तृत था। मौर्योत्तर कालीन उत्तर भारत के पर्वतीय एवं पर्वतपादीय मैदानी क्षेत्रों में कुणिन्द मुद्राओं के व्यापक प्रसार से स्पष्ट होता है कि मौर्योत्तर काल में कुणिन्द जनपद एक स्वतंत्र राज्य के रूप में स्थापित हो चुका था। 


कुणिन्द मुद्राओं का काल- 

कुणिन्द मुद्राओं में उत्कीर्ण लिपि के आधार पर मुद्रा शास्त्री इन्हें मुख्यतः तीन प्रकार से विभाजित करते हैं। कुणिन्द मुद्राओं ये तीन प्रकार उनके काल निर्धारण में भी सहायक हुए हैं। विभिन्न स्थानों से प्राप्त कुणिन्द मुद्राओं के प्रकार-


1- अमोघभूति प्रकार-              


2- अल्मोड़ा प्रकार-               


3- छत्रेश्वर प्रकार-


‘अमोघभूति’ प्रकार की मुद्राओं में ‘राज्ञः कुणिन्द’ उत्कीर्ण है। कुणिन्द राजाओं को विद्वान महाभारत में उल्लेखित ‘कुलिन्द’ से संबंद्ध करते हैं। वर्ण ‘ण’ और ‘ल’ में विभन्नता समय-समय पर प्रचलित क्षेत्र विशेष की लिपियों में अंतर प्रतीत होता है। मुद्रा शास्त्रियों ने लिपि के आधार पर ही ‘अमोघभूति प्रकार’ की मुद्रा का काल निर्धारण मौर्य काल के अंतिम चरण से शुंग काल के पतन तक किया है। जबकि डी.डी. सरकार ने ‘अल्मोड़ा प्रकार’ की मुद्रा को प्रथम सदी ईस्वी का बतलाया है। ‘चत्रेश्वर’ या ‘छत्रेश्वर’ प्रकार की मुदा का काल निर्धारण सातवाहनों के उदय (प्रथम सदी ई.) से कुषाणों के उत्कर्ष काल (द्वितीय सदी ई.) तक किया गया है। 


    अल्मोड़ा प्रकार की मुद्राओं से भिन्न-भिन्न राजाओं के नाम प्राप्त होते हैं। इस कारण ये मुद्राएं, अन्य दोनों प्रकार की मुद्राओं से भिन्न प्रकार की है। ‘‘ये मुद्राएं मात्र उत्तराखण्ड हिमालय से मिली हैं। इनमें से अल्मोड़ा जनपद से मिली शिवदत्त, शिवपालित, हरिदत्त, म-ग-भ-त नामक चार राजाओं की चार मुद्राएं अब ब्रिटिश संग्रहालय लंदन में हैं।’’ अमोघभूति और छत्रेश्वर प्रकार की सभी मुद्राओं पर एक ही राजा क्रमशः ‘अमोघभूति’ और ‘छत्रेश्वर’ नाम ही उत्कीर्ण हैं। बागेश्वर के कत्यूर घाटी से ‘‘जो चौवन मुद्राएं मिली हैं, उनमें से एक शिवदत्त की, एक आसेक की तथा शेष गोमित्र की है।’’ राजाओं के नाम की भिन्नता के पश्चात भी ‘‘रैप्सन तथा डी. सी. सरकार ने अल्मोड़ा से प्राप्त मुद्राओं को कुणिन्द मुद्रा माना है।’’


अमोघभूति मुद्राएं ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपि में उत्कीर्ण हैं। जबकि छत्रेश्वर और अल्मोड़ा प्रकार की मुद्राएं केवल ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण हैं। विद्वानों के अनुसार प्रथम सदी के आस पास सतलुज के पश्चिम में ब्राह्मी के साथ खरोष्ठी लिपि का भी चलन था। जबकि सम्राट अशोक का कालसी शिलालेख ब्राह्मी लिपि में ही उत्कीर्ण है, जो इस तथ्य की पुष्टि करता है कि उत्तराखण्ड में मौर्य काल से ही ब्राह्मी लिपि प्रचलन में थी। अतः अमोघभूति प्रकार की मुद्रा का चलन सतलुज के आस पास पश्चिमी कुणिन्द राज्य में था। जबकि छत्रेश्वर और अल्मोड़ा प्रकार की मुद्राओं का चलन पूर्वी कुणिन्द राज्य उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश में था। 


     अमोघभूति प्रकार की कुणिन्द मुद्रा पर विभिन्न प्रकार की आकृतियां निर्मित हैं, जिन्हें चिह्न या चित्रांकन कह सकते हैं। इन आकृतियों में वेदी सहित बोधिवृक्ष, चैत्य, स्तूप, नन्दीपाद, नाग, स्वास्तिक, मृग, स्त्री, तृण और कमल पुष्प आदि महत्वपूर्ण हैं। बोधिवृक्ष, स्तूप और चैत्य बौद्ध तथा वेदी, स्वास्तिक, नंदीपाद, नाग, मृग और कमल पुष्प सनातन धर्म के प्रतीक हैं। बोधिवृक्ष, स्तूप और चैत्य कुणिन्द राज्य पर बौद्ध धर्म के प्रभाव को प्रकट करते हैं। जबकि अल्मोड़ा प्रकार की मुद्राओं पर बौद्ध प्रतीक चिह्न अंकित नहीं है।


अल्मोड़ा प्रकार की कुणिन्द मुद्रा में नाग, मृग, वृक्ष, नंदी, नंदीपाद के ऊपर विजयध्वज और पुरुष देवता का चित्रांकन किया गया है। नंदी और नाग मध्य हिमालय संस्कृति के प्रतीक हैं। नंदी शिवत्व का प्रतीक है। अतः मध्य हिमालय में शिवत्व का सर्वप्रथम प्रचार-प्रसार और अभिवृद्धि का श्रेय कुणिन्दों को दे सकते हैं। ‘नाग’ पूजा पद्धति आज भी मध्य हिमालय के कई क्षेत्रों में प्रचलन में है। सरयू-पूर्वी रामगंगा अंतस्थ क्षेत्र तो नाग मंदिरों के लिए मध्य हिमालय में प्रसिद्ध है। यहाँ कालीनाग, पिगलनाग, बेड़ीनाग, शेषनाग, वासुकिनाग, फेणीनाग, धौलीनाग, हरीनाग और खरहरीनाग के प्रसिद्ध मंदिर है। अल्मोड़ा प्रकार की मुद्राओं पर विजयध्वज का अंकन संकेत करता है कि कुणिन्द वंश ने अपना राज्य का विस्तार पश्चिम से पूर्व की ओर किया। संभवतः कुमाऊँ क्षेत्र को विजित करने के पश्चात कुणिन्द शासकों ने ‘विजयध्वज’ को अपने मुद्राओं में स्थान दिया।


छत्रेश्वर या चत्रेश्वर प्रकार की मुद्रा पर वेदी, चैत्य, नाग, सरिता, शिव, त्रिशूल, परशु, मृग और वृक्ष आदि का चित्रांकन किया गया है। ‘‘कुणिन्दों की ये (चत्रेश्वर प्रकार) बड़ी-बड़ी मुद्राएं कुषाणों की ताम्र मुद्राओं के अनुकरण पर बनी हैं।’’ संभवतः ‘चत्रेश्वर’ नामक कुणिन्द शासक ने कुषाण राज्य के पतनोपरांत मध्य हिमालय पर राज्य किया। प्राचीन संस्कृति के वाहक कुणिन्द मुद्राओं को शिवत्व और स्थानीय संस्कृति का प्रचार-प्रसारक भी कह सकते हैं। कालान्तर में शिवत्व और स्थानीय संस्कृति के समन्वय को से ‘मध्य हिमालय संस्कृति’ विकास हुआ।


कुणिन्द मुद्राओं के विविध आयामों से स्पष्ट होता है कि ‘कुणिन्द वंश’ नहीं एक ‘जनपद’ था, जो पश्चिमी जनपद, मध्य जनपद और पूर्वी जनपद में विभाजित था। पश्चिमी जनपद का केन्द्र स्रुघ्न (सुघगांव) अम्बाला में था, जिसके संकल्पना का आधार अमोघभूति प्रकार की मुद्राएं हैं। इस प्रकार की मुद्राएं श्रीनगर (गढ़वाल) के पास सुमाड़ी से लेकर पश्चिम में सतलुज के पार ज्वालामुखी तक एंव दक्षिण में करनाल और सुनेत से भी प्राप्त हुई हैं। मध्य हिमालय के दक्षिणी पर्वतपादीय मैदानी क्षेत्रों, जो ‘बेहट’ (सहारनपुर) के आस पास के क्षेत्र थे, को ‘मध्य कुणिन्द जनपद’ के रूप में चिह्नित कर सकते हैं। अल्मोड़ा प्रकार की मुद्रा-विवेचना से पूर्वी कुणिन्द जनपद की अवधारणा को बल मिलता है। अल्मोड़ा और गोमती घाटी बागेश्वर के निवटवर्ती क्षेत्र को ‘पूर्वी कुणिन्द जनपद’ कह सकते हैं।

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