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कत्यूरी शासन

कत्यूरी शासन 2500 वर्ष पूर्व से 700 ईस्वी तक रहता है कत्यूरी राजाओं की राजधानी पहले जोशीमठ थी बाद में कार्तिकेयपुर। उस समय कहा जाता है, कि उनका साम्राज्य सिक्किम से लेकर काबुल तक था। दिल्ली रोहिलखंड आदि प्रांत में भी कत्यूरी राज्य शासन की सीमा के अंदर आते थे।  इतिहासकार अलेक्जेंडर कनिंघम ने भी इसका अपनी पुस्तक में जिक्र किया है। कत्युरी क्षेत्र ने प्रसिद्धि चंद राजाओं के काल में पाई। महाभारत में यह लिखा है, कि जब युधिष्ठिर महाराज ने अपने प्रतापी भाई भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव को विजय के लिए भेजा तो उस समय उनका युद्ध यहां पर कई जाति के क्षत्रियों से हुआ था। और वे लोग राजसूय यज्ञ में नजराना लेकर गए थे। कत्यूरी सम्राट शालिवाहन:- लगभग 3000 वर्ष पूर्व शालिवाहन नामक राजा कुमाऊँ में आए। वे कत्यूरियों के मूल पुरुष थे। पहले उनकी राजधानी जोशीमठ के आसपास थी।  राजा शालिवाहन अयोध्या के सूर्यवंशी राजपूत थे। अस्कोट जो कि वर्तमान में पिथौरागढ़ में स्थित है, खानदान के राजबार लोग, उनके वंशज है, कहते हैं कि वह अयोध्या से आए थे और कत्यूर में बसे।  कत्युरी राजा कार्तिकेयपुर से गढ़वाल का भी शासन करते थे। बद्री दत्त पाण्डेय के अनुसार ''ये राजा शालिवाहन इतिहास प्रसिद्ध चक्रवर्ती सम्राट न थे, क्योंकि सारे भारतवर्ष के सम्राट अपनी राजधानी कत्यूर या जोशीमठ में रखें यह बात समझ में नहीं आ सकती। हां यह जगह उनके गर्मियों में रहने की हो यह बात तो संभव है पर उस समय जब की मार्ग की सुगमता नहीं थी ऐसा करना खिलवाड़ न था। इससे यह बात साफ जाहिर होती है कि अयोध्या के सूर्यवंशी के कोई राजा शालिवाहन यहां आए और उन्होंने यहां एक अच्छा प्रभावशाली साम्राज्य स्थापित किया''। इतिहासकार फरिश्ता की बातें : फरिश्ता नामक फारसी इतिहासकार एक स्थल में यह लिखता है कि कुमाऊं के राजा पुरु ने बहुत सेना एकत्रित की और दिल्ली पर चढ़ाई की। वहां के राजा दिल्लू को हराकर 4 या 40 वर्ष के राज्य के बाद वह सम्राट बन गए और दिल्लू को रोहतास के किले में बंद कर दिया।  सब लोग कहते हैं कि राजा पुरु ने सिकंदर का मुकाबला सिंधु नदी के किनारे किया और वह वह मारा गया। उसने करीब वहां पर 73 वर्षों तक शासन किया। दिल्ली की उत्पत्ति के बारे में इतिहासकार कनिंघम कहते हैं कि कुमाऊं के राजा पुरु कि राजा दिल्ली दिल्ली को मारने की बात यदि सत्य माने तो फ़रिश्ते की दी हुई जो वंशावली है वह ठीक नहीं लगती क्योंकि उसमें पुरू के भतीजे जूना को सेल्युकस निकेटर का समकक्षी न बताकर और अर्दशीर बाबेकन का सहयोगी बताया गया है। कत्यूरियों की राजधानी : इतिहासकार कनिंघम के अनुसार कत्यूरी राजाओं की राजधानी लखनपुर या विराटपतन थी जो राम गंगा नदी के किनारे स्थित है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी अपनी पुस्तक में ब्रह्मपुर व लखनपुर का जिक्र किया है। वह लिखते हैं कि बौद्ध एवं ब्राम्हण दोनों मत के लोग वहाँ रहते थे, कुछ लोग विद्या व्यसनी थे और बाकी लोग खेती करते थे। संभव है कि यह राजधानी कत्यूरियों की रही हो। ब्रह्म व लखनपुर तो वास्तव में राज्य और राजधानी के नाम है। डोडी अस्कोट व पाली के कत्युरी राजाओं की वंशावली में आसंतीदेव व वासंती देव के नाम आए हैं। तामाढौन  के पास सारंग देव का मंदिर है इसमें सन 1420 ईस्वी खुदा हुआ है। आसंतीदेव व वासंती देव इनसे नौ पुस्त पहले हुए हैं। लखनपुर का छठी शताब्दी में बसना संभव है कुछ लोग लखनपुर का जोहार क्षेत्र में होना कहते है। क्योंकि एक स्थल में इसका गोरी नदी में होना कहा गया है।एक लखनपुर अल्मोड़ा के पास भी है पर इतिहासकार श्री कनिंघम ने जो नक्शा ब्रम्हपुर को लखनपुर का दिया है उससे यह स्पष्ट है कि ब्रह्मपुरराज्य कुमाऊं में था और लखनपुर उसकी राजधानी रामगंगा नदी के किनारे थी, जो पाली पछाऊँ में है।  जोशीमठ से कत्यूर आने की कहानी:  अंग्रेजी लेखकों का अनुमान है कि कत्युरी राजा आदि में जोशीमठ में रहते थे। वहां से वे कत्यूर आए। उनके जाड़ों में रहने की जगह ढकोली थी। वह बाद में चंद राजा भी जाड़ों में  यहीं रहने लगे। कुछ समय पश्चात उन्होंने कोटा व अन्य स्थानों में अपने महल बनाए। सातवीं शताब्दी तक यहां बुद्ध धर्म का प्रचार था क्योंकि ह्वेनसांग ने अपनी पुस्तक में लिखा है गोविषाण (वर्तमान-काशीपुर) तथा ब्रह्मपुर(जिसे की लखनपुर के नाम से जाना जाता है) दोनों में बौद्ध लोग रहते थे। कहीं कहीं सनातनी भी थे। मंदिर वह मठ साथ-साथ थे। पर आठवीं शताब्दी में आदि गुरु शंकराचार्य के धार्मिक दिग्विजय से यहां  बौद्ध धर्म का ह्वास हो गया। नेपाल व कुमाऊं दोनों देशों में शंकर गए और सब जगह मंदिरों से बौद्ध मार्गी पुजारियों को निकालकर सनातनी पंडित वहां नियुक्त किए। बद्रीनारायण, केदारनाथ व जागेश्वर के पुजारियों को भी उन्होंने ही बदला। बौद्धों के बदले दक्षिण के पंडित बुलाए गए।  कत्यूरी राजा भी ऐसा अनुमान है कि शंकर के आने के पूर्व बौद्ध थे और बाद में सनातनी हो गए। शंकर के समय में जोशीमठ वे में होने बताए जाते हैं। कत्यूर व कार्तिकेयपुर में वे जोशीमठ से आए। कुमाऊं के तमाम सूर्यवंशी ठाकुर व रजवार लोग अपने को इसी कत्यूरी खानदान का होना कहते हैं।  जोशीमठ में वासुदेव नाम का प्राचीन मंदिर है। कहा जाता है कि यह कत्यूरियों की मूल पुरुष वासुदेव ने बनवाया है । इससे प्राचीन मंदिर कुमाऊं में कोई नहीं है। ऐसा कहा जाता है कत्यूरी सम्राट का नाम इस मंदिर में इस प्रकार खुदा है "श्री वासुदेव गिरिराज चक्र चूड़ामणि"। यह सम्राट जोशीमठ में रहते थे। भगवान विष्णु का नाम वासुदेव है। अतः इन्होंने भगवान से अपना नाम मिलता देख उस मंदिर के साथ संकर्षण, प्रद्युम्न अनिरुद्ध, प्रभृति देवताओं के मंदिर भी बनवाए। यह बात प्रायः निर्विवाद है, कि कत्यूरी राजाओं का राज्य सिक्किम से काबुल तक तथा दक्षिण में बिजनौर, दिल्ली, रोहिलखंड आदि प्रांतों में था। फरिश्ता, कनिंघम, शेरिंग, एटकिंसन आदि इतिहासकारों का भी यही मत है।

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